पत्रकारिता जब सीख रहा था, तब एक बात हमेशा से कहा जाता रहा कि पुराने अखबारों को दिन और महीने के हिसाब से अध्ययन करों। उसमें देखा कि साल और दिनांक, आंकड़े भले ही बदल जाते हो, लेकिन खबरें महीने के हिसाब से ही मिली। या ये मेरा अपना एक अनुभव भी हो सकता है। इसी तरह देखिये यूपी में चुनाव होने हैं और देश में दलित की राजनीति छा गई है, इसमें जम्मू कश्मीर का मुद्दा धुमिल हो गया है। मध्य प्रदेश में बीएसपी के चार विधायक हैं, लेकिन दलित की जब बात आई तो कांग्रेस ने भी अपना समर्थन देकर हंगामा खड़ा कर दिया। दो बार सदन स्थगित हुआ। निंदा प्रस्ताव लाने की बात कही गई, लेकिन बीजेपी अपने ही नेता के खिलाफ, जो भले ही अब बीजेपी का हिस्सा नहीं है। उसके खिलाफ निंदा प्रस्ताव कहां से लाती। यहीं जब पिछले सत्र में औवेसी नेता के खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाना था, तो यहीं बीजेपी ने जोर शोर से कांग्रेस की मांग पर निंदा प्रस्ताव लाया था। समय के खेल को भी देखिये, राजनीति हमेशा से गणीतीय समीकरण से चला है। नेता इतने तमाशागार बन गए है उनको कौन सा करतब कब दिखाना है, यह पहले से टाइमलाइन पर तय रहता है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेकर बात करें तो मैं कई या सैकड़ों बार उनका कवरेज करने के लिये गया। उनके हरेक भाषण में पुराने भाषण का लिंक रहता था। या यू कहिए की शुरूआती नया और बाद में पुराने भाषण की कापी होती थी। नई बोतल में पुरानी शराब , नशा भी जमकर लोगों के जुबान पर बोलने लगा। शिवराज सिंह चौहान का आत्मविश्वास धीरे धीरे बढ़ा और अब शिवराज का सम्मोहन अंतिम चरम पर पहुंच गया है, जहां जो वो बोल देते , वहीं लकीर खींच जाती थी। लेकिन किसी के अंतिम लाइन के बाद एक नया सवेरा होता है। मध्य प्रदेश में हालात भी वैसे ही बन रहे हैं। शिवराज सिंह के नेतृव्य में नगर निकायों की चुनाव हार चुकी है। राजनीतिकार इसे बुरे दिन के दौर की शुरूआत मान रही है। हालांकि ये तीन निकाय चुनाव हारने को बीजेपी की करारी हार नहीं कह सकते है, लेकिन वर्तमान में ही भविष्य का संकेत होता है। जो बुध्दिमान होता है, वह संकेत समझकर बदलाव की ओर बढ़ता है। मप्र विधानसभा में गुरूवार को एक पुराना चेहरा यूरोप घूमने के बाद नये गेटअप में दिखा, वो थे कैलाश विजयवर्गीय। अपने पुराने वरिष्ठ साथी बाबूलाल गौर के ठीक बगल में बैठे नजर आए। उनकी सक्रियता मप्र में बढ़ रही है और चाहिये भी। बीजेपी अवसरवाद और मौका वाद की पार्टी रही है और कैलाश विजयवर्गीय को भी मौका मिलना चाहिये। शीर्ष पार्टी पर बहुत कुछ करने का प्रयास किया , लेकिन सफलता वैसी नहीं मिली, जैसी सोची थी। अब बैक टू द पावलियन यानि वापसी की ओर हैं। बीजेपी संघ और सगंठन के इशारे पर चलती है। अगर कैलाश मप्र की राजनीति में रूचि ले रहे है तो मप्र की राजनीति में उथल पुथल होना स्वभाविक है। राजनीति विशलेषक भी इस ओर सोच रहे हैं।
यूपी में चुनाव होने है, मप्र से सटा हुआ राज्य है। मप्र की अधिकांश आबादी यूपी या बिहार से हैं। गिने चुने लोग साउथ, कलकत्ता से भी मिल जाएंगे, लेकिन इसकी संख्या कम है। इसलिये मप्र में घटित घटनाएं यूपी में बीजेपी के मत को भी प्रभावित करेगी। यूपी एक ऐसा राज्या हैं, जहां से सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री इस देश को मिला है। यूपी में बीजेपी की जीत विकास के बजाए जातिय समीकरण पर टिकी हुई है। बिहार में जिस तरीके से बीजेपी को करारी हार मिली , वहीं हार यूपी में भी मिल सकती है। बीएसपी चाहेगी कि बीजेपी नेता उस पर शब्दों का तीखा प्रहार करें, तभी तो जातिय ध्रुवीकरण होगा। वहीं सपा अभी शांत मूड में हैं और शांति अपने आप में भूचाल की तरह होती है। यूपी चुनाव में बीजेपी के स्टार प्रचाकर के रूप में शिवराज भी होंगे। इसलिये आज विधानसभा में कांग्रेस और बीएसपी ने दलिता का मुद्दा उठाकर शिवराज को घेरने का प्रयास किया है। जिससे कि चुनाव के समय कांग्रेस और बीएसपी दोनों मिलकर बीजेपी और शिवराज को कोस सकें। वहीं बीएसपी में दरार भी देखने को मिली। बीएसपी विधायक ने अपने ही पार्टी के विधायक दयाशंकर को अवैध औलाद बता दिया और कहा कि डीएनए में खराबी है। बीजेपी को ऊंगली करने में ज्यादा मजा आता है। ऐसा क्यों हुआ , इस पर आपको सोचना होगा।
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