Saturday, 30 July 2016

क्या यह दाग धो पाएंगे 'शिवराज' ?

सिहंस्थ में कथित रूप से हुए भ्रष्टाचार के मंथन से कांग्रेस को विष हाथ लगा है। चाल, चरित्र और कैडर की पार्टी भाजपा ने अमृत पी ली है। इसलिये कांग्रेस में बौखलाहट , जो दिख रही हैं। मध्य प्रदेश में इन दिनों सांप भी मर जाए और लाठी नहीं टूटे। यह कहावत चरितार्थ  है। मध्य प्रदेश कांग्रेस के पास सिहंस्थ घोटाले का मुद्दा था, विधानसभा के मानसून सत्र में कांग्रेस चाहती तो सरकार को पहले दिन से घेर सकती थी। अनुपूरक बजट पर चर्चा की जगह भ्रष्ट्राचार पर चर्चा करा सकती थी। लेकिन एक सोची समझी साजिश के तहत सत्ता पक्ष के साथ कांग्रेस ने हाथ मिलाकर जैसा सत्ता पक्ष ने चाहा वैसा ही किया। अंतिम दिन यानि मानसून सत्र के आखिरी दिन कांग्रेस ने सिहंस्थ में हुए भ्रष्टाचार को लेकर मुद्दा उठाया। सबको पता था कि सत्ता पक्ष ने विधेयक से लेकर बजट तक पास करवा लिया है और ऐसे में विपक्ष सदन की कार्रवाई को स्थगित भी कर देता है, तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। ऐसा ही हुआ। बीजेपी यानि सत्ता पक्ष और विपक्ष ने विधानसभा की कार्रवाई को लेकर पहले ही से स्किप्ट तैयार कर रखी थी। वैसे ही स्किप्ट पर सदन की कार्रवाई चलती रही। लोकतंत्र में विपक्ष कमजोर हो या सत्ता पक्ष उस पर हावी हो तो विपक्ष की जगह उसको सत्ता पक्ष ही मान लेना चाहिये। ठीक वैसा ही हुआ। मानसून सत्र की कार्रवाई चलती रही और विपक्ष ने अपनी भूमिका छोड़ सत्ता पक्ष के काम को आगे बढ़ाया। इधर कांग्रेस के महासचिव ने जब देखा कि ऐसे में कांग्रेस की नाव पूर्ण रूप से डूब जाएगी, तो उन्होंने कांग्रेस के चंद विधायकों को जगाने के लिये टिविटर का सहारा लिया। दिग्गी के टिविट के बाद खलबली कांग्रेस के अंदर मच गई। कांग्रेसियों को लगा कि आला कमान की नजर उन पर है और सत्ता पक्ष के साथ गठजोड़ का खेल बंद करके अपने आपको पाक साबित किया जाए, इसके लिये उन्होंने विधानसभा सत्र के अंतिम दिन को चुना। जब सत्ता पक्ष को उनकी जरूरत ही नहीं थी। सदन में आखिरी दिन कांग्रेस विधायक ऐसे चीखने लगे, जैसे मानों सिहंस्थ अभी खत्म हुआ हो। सदन की कार्रवाई के तीन घंटे में ऐसे लगा कि कांग्रेस विधायकों ने आज कौन सा एनर्जी ड्रिंक पी लिया है। सिहंस्थ भ्रष्ट्राचार पर सरकार को घेरना और सदन की कार्रवाई स्थगित होने से पहले ही सोशल मीडिया के कई ग्रुपों में प्रेस कांफ्रेस को लेकर मैसेज आ गया कि साढ़े चार बजे अरूण यादव, बाला बच्चन और रामनिवास राउत सिहंस्थ घोटाले पर पीसी लेंगे। जबकि कांग्रेसियों को छोड़कर किसी को पता नहीं था कि सदन चार बजे से पहले ही स्थगित हो जाएगी। ठीक वैसा ही हुआ। तीन बजे के बाद सदन की कार्रवाई अनिश्चितकालीन के लिये स्थगित हो गई। कांग्रेस ने साढ़े चार बजे पीसी बुलाई। सिहंस्थ के कथित घोटाले पर सत्ता पक्ष पर आरोपों की बरसात कर दी। सदन में जब मुद्दा उठाने की बात सवाल जवाब हुए तो अपने आपको पाक साफ करके सत्ता पक्ष के नेता नरोत्तम मिश्रा का दवाब बताया, लेकिन यह नहीं बताया कि कांग्रेस के किस कारनामे को लेकर मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने दवाब बनाया था। यहां भी उनकी स्किप्ट आधी अधूरी थी। प्रेस कांफ्रेंस के अंतिम समय में उपनेता प्रतिपक्ष बाला बच्चन को बेकसूर बताया और प्रदेशाध्यक्ष अरूण यादव ने यहां तक कहा कि हमने कोई आरोप नहीं लगाए। यादव यह बात कहकर खुद फंस गए, दिग्गी के टिविट के बाद बाला बच्चन का नाम उछला था। फिर प्रदेशाध्यक्ष यादव ने टिप्पणी क्यों की। इस पर दिग्गी को ही टिविट करना था। क्योंकि उनके टिविट से ही आरोप लगा था। 
  छोड़िये इस कमजोर विपक्ष को। जो सैकड़ों के आंकड़ों को भी पार नहीं कर सकी, वह क्या जनता के लिये लड़ेगी। सिहंस्थ के दौरान घोटालों पर कई कमेंट्स आए थे, आपको याद होगा, नहीं है, तो थोड़ फ्लैश बैक में दिमाग को ले चलिये। कैलाश विजयवर्गी और भूपेंद्र सिंह ने यहां तक कहा था कि महाकाल की नगरी है, जो भ्रष्ट्राचार करेगा, उसको महाकाल की तीसरी आंख भष्म कर देगी। कुछ ऐसा ही कमेंट्स छाया था मीडिया के बाजार में। कुछ लोगों को अब समझ में आ गया होगा कि यह ईशारा किसकी ओर था। क्यों इस तरह के कमेंट्स दिये गए थे। 
 अब बात करें शिवराज सिंह चौहान की। उनके दामन में विपक्ष ने फिर  दाग लगा दिये। अब भाई दाग अच्छे हो या खराब। उसको धोना ही पड़ता है। महाकाल की नगरी में भ्रष्टाचार हुए है, इसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के फिर एक रिश्तेदार का नाम सामने आया हैं। मुख्यमंत्री अकसर इंटरव्यू के दौरान कहते है कि मेरे रिश्तेदार अगर व्यवसाय में हैं, तो मैं उनको व्यवसाय बंद करने के लिये नहीं कह सकता। वो अपना बिजनेस कर रहे हैं और करें।  मुख्यमंत्री महोदय आपकी तर्क जायज हैं, लेकिन इतना तो जनता जरूर कहेगी कि यह भी जरूर नहीं कि आपके रिश्तेदारों की दाग शिवराज ही धोएं। व्यापार के लिये पूरी दुनिया पड़ी है, आपके आस- पास ही क्यों। 

Monday, 25 July 2016

'गौर ' पर गौर करें शिवराज


मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर शायद ही ऐसे विधायक होंगे, जो ऊपर से नीचे की ओर गिरते अपने राजनीति कैरियर की ग्राफ और इस उम्र में दमखम के साथ लड़ने को तैयार बैठे हैं। मानसून विधानसभा के सत्र को गौर साहब ने बीजेपी के लिये गर्म कर दिया। राजधानी में इन दिनों जोरदार बारिश हो रही है, लेकिन मप्र की राजनीति में सत्ता पक्ष और बीजेपी पदाधिकारियों में अलग तरह की गर्मी देखने को मिल रही है। 75 साल के फार्मूले को लागू करके मध्य प्रदेश में बीजेपी ने कभी नहीं सोचा होगा कि उम्रदराज नेता पार्टी की छवि और सीधा मुख्यमंत्री के कार्यप्रणाली पर सवाल उठाएंगे। स्व. हरिवंश राय बच्चन की एक बात अकसर अमिताभ बच्चन दोहराते है मन को तो अच्छा और मन का न हो तो बहुत अच्छा। गौर साहब के मन का तो नहीं हुआ, क्योंकि पार्टी ने उनसे मंत्रालय छिन कर उन्हें विधायक बना दिया। राजनीति में जमने के बाद बाबूलाल गौर ने पहली बार विधायक बने थे, आज भी वो विधायक ही हो गए। बस बदला तो सिर्फ उम्र और समय। गौर के अंदर एंग्रीमैन का रूप देखकर लालकृष्ण आडवाणी सोचते होंगे , अगर में भी विरोध करने का यहीं तीखा तेवर दिखाता तो बात ही कुछ और होती। सत्ता में बैठकर सत्ता के खिलाफ बोलना और चलना. मतलब साफ है कि आप अपने कैरियर पर दांव लगा रहे हो। गौर ने आज विसं में वो कुछ कहा जो विपक्ष नहीं कह सका और न ही किसी भी पत्रकार ने अपने कलम से इस कर्ज के कटाक्ष पर टिप्पणी की होगी। गौर ने सरकार पर आरोप लगाए कि सरकार कर्ज लेकर घी पी रही है। जनाब सरकार ही नहीं, इस देश का अधिकांश नागरिक कर्ज लेकर ही घी पी रहा है। क्या करें, देश की अर्थव्यवस्था और प्रशासन ने जो कुछ दिया है, वह सिर्फ कर्ज है। जब सरकार कर्ज के सहारे हैं, तो इस राज्य़ का आम इंसान कृषि के लिये कर्ज ले रहा है, वह भी सही ही कर रहा। जब पालनकर्ता ही कर्ज में हैं, तो फिर आम इंसान की बात मत कीजिये। कर्ज इंसान क्यों लेता है, इसके पीछे कई मंशा हो सकती है। कर्ज लेना कोई बुरी चीज नहीं है। सभी देश , राज्य और इंसान भी कर्ज लेकर आगे बढ़ता है और बढ़ता आया है। हां यह जरूर है कि कर्ज का उपयोग कैसे किया जा रहा, किन मदों में किया जा रहा है। जब आप देश के हरेक नागरिक पर कर्ज का भार बताते हो तो उस धन का उपयोग आप कैसे कर रहे हो। यह कोई सरकार नहीं बताता और हमारी इच्छा भी नहीं रही है कि हम कर्ज लेने वाले सरकार से पूछे कि कर्ज लेकर आपने क्या सुधार की या क्या व्यवस्था की।
 बारिश के दौरान नगर निगम व्यवस्था की पोल खुल गई। नगर निगम ने विदेशी कर्ज से कई बार डैनेज पाइललाइन, पीने का पानी हरेक चीज की व्यवस्थित करने का प्रयास किया, लेकिन नतीजन कुछ भी आम आदमी को नहीं मिला या जो मिला उसकी कामयाबी की प्रतिशत इतनी कम थी, कि इसे नाकामी ही माना जा रहा हैं। ऐसे में आप क्या कर और कह सकते है। लोकतंत्र में जनता के पास सिर्फ पांच साल में वोट देने का प्रावधान है। सत्ता में आनी वाली पार्टी किसी राज्य को बेच भी दें, तो जनता वोट वापस लेकर गिरा नहीं सकती है। यह लोकतंत्र की खामी है। इसको अब मान लीजिये , नहीं तो भविष्य में आप ये बात जरूर कहेंगे।
 राजनीति में आने वाले लोगों की सोच में भी बदलाव हुआ है। अब नेता अपने आपको स्थिरता में लाना चाहते है़, तभी तो यह कहते है कि पांच साल की जगह दस साल में चुनाव हो। मतलब पांच साल में काम हम नहीं कर सकते। जबकि प्रतिस्पऱ्धा के बाजार में निजी कंपनियां टाइम लिमिट को कम करके टारगेट दे रही है। शायद इसलिये हमारे बुर्जुग सरकारी नौकरी को बेहतर बताते हैं।
 आप सोचिये अगर राज्य और केंद्र के चुनाव दो - तीन साल में होंगे तो काम करने की प्रतिस्पर्धा इनके अंदर बढ़ेगी। पांच साल में एक घोटाले में जितना पैसा डूबता है, उतने पैसे में चुनाव आराम से हो जाएंगे। और जनाब इसका टेंशन राजनीति पार्टी को क्यों हैंं, जनता का पैसा है, आयकर सहित अन्य कर के माध्यम से जमा होता है,तब चुनाव होता है। इसको लेकर आपको क्यों टेंशन हैं और ये टेंशन कब से होने लगा।
 अब बात गौर साहब की , तो गौर साहब तो वहीं कह रहे हैं, जो उन्होंने देखा है। इसमें गलत क्या है। लोग चुप रह जाते हैं, और वो बोल रहे है। उनका बोलना उनकी अभिव्यक्ति है। गौर ने सरकार से चंद सवाल ही पूछे हैं, इसमें गलत क्या है। हो सकता है यह सवाल किसी पत्रकार या आम लोगों के हो और विधानसभा के प्रतिनिधि होने के कारण पूछ लिय़े। इसमें बुरा क्या है। आप कर्ज में हो, जनता के सेवक हो, लेकिन वेतन में क्य़ों कटौती नहीं। सुविधा में कोई कटौती नहीं।  कर्ज में रहने वाले व्यक्ति से यह सवाल बुजुर्ग की करता है,अगर आपको भरोसा नहीं हो तो दूसरे से पूछ लीजिये या नहीं तो मैडम क्वीन से पूछिए। वो भी यही बात कहेंगे।
 किसानों की बात तो छोड़ दीजिये मुख्यमंत्री साहब, मप्र के किसान भूत प्रेत से प्रताड़ित होकर आत्महत्या कर लेते हैं। डिजीटल इंडिया में जुमला चल सकता हैं, तो भूत प्रेत भी चलेगा। लेकिन एक पत्रकार की बेटी ने आत्महत्या सिर्फ इसलिये कर लिया कि वो आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। इस पर विसं सदन को आप क्या बताएंगे। अगर मुख्यमंत्री साहब कोई आपसे पूछ दें कि आपके राज्य में निजी कंपनी कितनी है, तो आप नहीं बता पाएंगे, क्योंकि आपका श्रम विभाग कुंभकरण की तरह सो रहा है। निजी कंपनी में कार्यरत लोगों को वेतन मिल रहा हैं या नहीं। उससे आपको क्या लेना देना। आपका वेतन तो बढ़ रहा है, साथ में विपक्ष का वेतन भी बढ़ा रहे हैं, तो दिक्कत ही क्या है। चोर चोर मसौरे भाई की तर्ज पर आप काम कर रहे है तो कीजिये राज्य की जनता को भूत प्रेत के साथ छोड़ दीजिए। ये जनता भी अब चुनाव में भूत प्रेत को वोट देगी, क्योंकि सबसे ज्यादा दिक्कत इनको इसी हो रही है।
आज गौर साहब कुछ बोल रहे हैं, तो आपके नए विधायक , जो आपके ही दम पर विधानसभा तक पहुंचे हैं, वो गौर साहब पर टिप्पणी करने से बाज नहीं आ रहे। लेकिन जब अनुशासन पार्टी के अंदर ही नहीं रहा हैं, तो आप और हम क्या करेंगे। अभिव्यक्ति के आजादी का जवाब एक दूसरे को दिया जा रहा है।
 लेकिन इससे पार्टी में जो अंदरूनी कलह की शुरूआत हो रही है, उसको कैसे दमन करेंगे। या फिर केंद्र में बैठे आका को बुलाएंगे, जो खुद दो साल में एक मच्छर तक नहीं मार पाए। उनसे सलाह लेंगे। मुख्यमंत्री साहब जब जादूगर जुमले की आड़ में धोखे का काम करता है, तो वह बाजार हमेशा एक जगह नहीं लगाता। मजमा लगाने के लिये भटकता भी रहता है। यह आपको तय करना है कि मजमा कहां लगाए और कैसे चलाए, क्योंकि लोकतंत्र में बहुमत आपके पास आज हैं और हो सकता है कि कल नहीं हो। 

Thursday, 21 July 2016

ऐ तमाशागार तेरे करतब अब पुराने हो गए हैं...


'धर्म बूढ़े हो गए  मजहब पुराने हो गए,ऐ तमाशागार तेरे करतब अब पुराने हो गए है'।  आज की बात की शुरूआत राहत इंदौरी के शायरी से कर रहा हूं...क्योंकि मध्य प्रदेश विधानसभा में जो भी घटित हो रहा है। यह परंपरा शायद इतिहास के साथ बन गई है। राजनीति में कभी भी विकास मुद्दा नहीं रहा शुरू से ही भारत में राजनीति धर्म समाज के गणितीय जोड़ पर टिकी हुई रही। भारत में लोकतंत्र के स्थापना से पहले राजघराने भी समीकरण जातिय आधार पर ही बनाते रहे है। शायद इतिहास से लोकतंत्र को जातीय समीकरण का खेल मिला। बीएसपी सुप्रीमो मायावती की तुलना वैश्या से करने पर बीजेपी ने अपने वफादार को मिनटों में बाहर का रास्ता दिखा दिया। जब मप्र में बीजेपी के तक्कालीन गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने महिला के पीछे स्पर्श किया और उसका वीडियों वायरल होने के बाद भी पार्टी बाहर निकालने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। यहां तक मुख्यमंत्री का खेद वक्तव्य भी नहीं मिला। अगर इस घटना क्रम के कुछ पीछे चले जाए तो मंत्री विजय शाह ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की पत्नी साधना सिंह पर मजाकिया लहजे में की गई टिप्पणी की, कीमत मजाकिया लहजे में पद गंवाकर चुकानी पड़ी। अंतर देखिये राजनीति में परिस्थितियां कैसे बदलती है, इतिहास कैसे अपने आपको दोहराता है। 
 पत्रकारिता जब सीख रहा था, तब एक बात हमेशा से कहा जाता रहा कि पुराने अखबारों को दिन और महीने के हिसाब से अध्ययन करों। उसमें देखा कि साल और दिनांक, आंकड़े भले ही बदल जाते हो, लेकिन खबरें महीने के हिसाब से ही मिली। या ये मेरा अपना एक अनुभव भी हो सकता है। इसी तरह देखिये यूपी में चुनाव होने हैं और देश में दलित की राजनीति छा गई है, इसमें जम्मू कश्मीर का मुद्दा धुमिल हो गया है। मध्य प्रदेश में बीएसपी के चार विधायक हैं, लेकिन दलित की जब बात आई तो कांग्रेस ने भी अपना समर्थन देकर हंगामा खड़ा कर दिया। दो बार सदन स्थगित हुआ। निंदा प्रस्ताव लाने की बात कही गई, लेकिन बीजेपी अपने ही नेता के खिलाफ, जो भले ही अब बीजेपी का हिस्सा नहीं है। उसके खिलाफ निंदा प्रस्ताव कहां से लाती। यहीं जब पिछले सत्र में औवेसी नेता के खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाना था, तो यहीं बीजेपी ने जोर शोर से कांग्रेस की मांग पर निंदा प्रस्ताव लाया था। समय के खेल को भी देखिये, राजनीति हमेशा से गणीतीय समीकरण से चला है। नेता इतने तमाशागार बन गए है उनको कौन सा करतब कब दिखाना है, यह पहले से टाइमलाइन पर तय रहता है। 
 मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेकर बात करें तो मैं कई या सैकड़ों बार उनका कवरेज करने के लिये गया। उनके हरेक भाषण में पुराने भाषण का लिंक रहता था। या यू कहिए की शुरूआती नया और बाद में पुराने भाषण की कापी होती थी। नई बोतल में पुरानी शराब , नशा भी जमकर लोगों के जुबान पर बोलने लगा। शिवराज सिंह चौहान का आत्मविश्वास धीरे धीरे बढ़ा  और अब शिवराज का  सम्मोहन  अंतिम चरम पर पहुंच गया है, जहां जो वो बोल देते , वहीं लकीर खींच जाती थी। लेकिन किसी के अंतिम लाइन के बाद एक नया सवेरा होता है। मध्य प्रदेश में हालात भी वैसे ही बन रहे हैं। शिवराज सिंह के नेतृव्य में नगर निकायों की चुनाव हार चुकी है। राजनीतिकार इसे बुरे दिन के दौर की शुरूआत मान रही है। हालांकि ये तीन निकाय चुनाव हारने को बीजेपी की करारी हार नहीं कह सकते है, लेकिन वर्तमान में ही भविष्य का संकेत होता है। जो बुध्दिमान होता है, वह संकेत समझकर बदलाव की ओर बढ़ता है। मप्र विधानसभा में गुरूवार को एक पुराना चेहरा यूरोप घूमने के बाद नये गेटअप में दिखा, वो थे कैलाश विजयवर्गीय। अपने पुराने वरिष्ठ साथी बाबूलाल गौर के ठीक बगल में बैठे नजर आए। उनकी सक्रियता मप्र में बढ़ रही है और चाहिये भी। बीजेपी अवसरवाद और मौका वाद की पार्टी रही है और कैलाश विजयवर्गीय को भी मौका मिलना चाहिये। शीर्ष पार्टी पर बहुत कुछ करने का प्रयास किया , लेकिन सफलता वैसी नहीं मिली, जैसी सोची थी। अब बैक टू द पावलियन यानि वापसी की ओर हैं। बीजेपी संघ और सगंठन के इशारे पर चलती है। अगर कैलाश मप्र की राजनीति में रूचि ले रहे है तो मप्र की राजनीति में उथल पुथल होना स्वभाविक है। राजनीति विशलेषक भी इस ओर सोच रहे हैं। 
 यूपी में चुनाव होने है, मप्र से सटा हुआ राज्य है। मप्र की अधिकांश आबादी यूपी या बिहार से हैं। गिने चुने लोग साउथ, कलकत्ता से भी  मिल जाएंगे, लेकिन इसकी संख्या कम है। इसलिये मप्र में घटित घटनाएं यूपी में बीजेपी के मत को भी प्रभावित करेगी। यूपी एक ऐसा राज्या हैं, जहां से सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री इस देश को मिला है। यूपी में बीजेपी की जीत विकास के बजाए जातिय समीकरण पर टिकी हुई है। बिहार में जिस तरीके से बीजेपी को करारी हार मिली , वहीं हार यूपी में भी मिल सकती है। बीएसपी चाहेगी कि बीजेपी नेता उस पर शब्दों का तीखा प्रहार करें, तभी तो जातिय ध्रुवीकरण होगा। वहीं सपा अभी शांत मूड में हैं और शांति अपने आप में भूचाल की तरह होती है। यूपी चुनाव में बीजेपी के स्टार प्रचाकर के रूप में शिवराज भी होंगे। इसलिये आज विधानसभा में कांग्रेस और बीएसपी ने दलिता का मुद्दा उठाकर शिवराज को घेरने का प्रयास किया है। जिससे कि चुनाव के समय कांग्रेस और बीएसपी दोनों मिलकर बीजेपी और शिवराज को कोस सकें। वहीं बीएसपी में दरार भी देखने को मिली। बीएसपी विधायक ने अपने ही पार्टी के विधायक दयाशंकर को अवैध औलाद बता दिया और कहा कि डीएनए में खराबी है। बीजेपी को ऊंगली करने में ज्यादा मजा आता है। ऐसा क्यों हुआ , इस पर आपको सोचना होगा। 

Wednesday, 20 July 2016

डिजीटल इंडिया में शिवराज को भूत-प्रेत पर भरोसा !

सही में अगर किसी ने एमपी को गजब-अजब की परिभाषा से चरितार्थ किया है, तो ये कई मामलों में सटीक बैठता है। केंद्र में कांग्रेस की सरकार जब थी, तो हमारे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान साइकिल से अनशन तक लड़ने के मूड में थे। लेकिन समय के साथ कांग्रेस की सरकार कल की बात हो गई और बीजेपी की सरकार वो भी पूर्ण बहुमत के साथ है। फिर भी मप्र में फसल बर्बाद होने पर किसानों को उचित मुआवजा नहीं मिलने के कारण आत्महत्या कर रहे है, तो सरकार किसानों को भूत प्रेत से प्रताड़ित बता रही है। यह काम अजब गजब राज्य में ही हो सकता है। 
  देश में बीजेपी ऐसी पहली पार्टी थी, जिसने चुनाव में थ्री डी से लेकर सोशल साइट का उपयोग चुनाव जितने के लिये कई हथकंडों के साथ किया। मोदी जी की सत्ता केंद्र में विराजमान हुई तो डिजीटल इंडिया का नारा लगा। हाई स्पीड ट्रेन से लेकर स्मार्ट सिटी की बात हुई। जो जिले केंद्र की स्मार्ट सिटी में पिछड़ गए, वो शिवराज के सहारे स्मार्ट सिटी बनने को तैयार हुए। शिवराज का घोषणा हुआ। जीत का फतह मिला, लेकिन आम लोगों को क्या मिला। कुछ भी नहीं। फसल बीमा और मुआवजा का गणित मैं आपको यहां समझा नहीं सकता। लेकिन किसान को कुछ भी नहीं मिला। 
  जो बीजेपी अयोध्या का मुद्दा उठा सकती है, जो पार्टी हिंदुत्व की बात करती है। वह पार्टी रामराज्य से दूर कैसे हो सकती है। रामराज्य की परिभाषा ही थी कि राम के राजा में एक भी आदमी भूखे नहीं सोयें। लेकिन यहां शिव का राज और शिवराज की यह जिम्मेदारी है कि मध्य प्रदेश के हरेक आदमी को रोजगार, भोजन , घर मिलें। अन्यथा ऐसे मुख्यमंत्री को पद पर रहने का नैतिक अधिकार नहीं होना चाहिये। अगर रामराज्य में शिवराज का विश्वास है, तो उनको विधानसभा सदन में बताना चाहिये कि आखिर क्यों किसानों की मौत को सूदखोरों की प्रताड़ना की जगह भूत प्रेत पर बताया गया। जब मप्र की पुलिस को भूत प्रेत की प्रताड़ना के बारे में पता है,तो वह भूत किसका हैं। यह भी पुलिस बताएं और इसकी जांच किस तरीके से मप्र की सरकार करेगी। उसकी विवेचना भी रिपोर्ट में लिखें। 
  यह देश का अनोखा मामला होगा, जहां सीहोर जैसे जिले में 441 किसानों की मौत भूत प्रेत से प्रताड़ित होकर हो गई। आज का दिन विधानसभा के पटल पर इतिहास लिख गया और भारतीय संविधान में विश्वास रखने वालों के लिये भी आज का दिन इतिहास से कम नहीं होगा। 
 सवाल यह भी है  किसानों की मौत को सरकार भूत प्रेत बताकर सरकार किसको बचाना चाहिये। लोकतंत्र में बहुमत प्राप्त सरकार को किससे खतरा है। विपक्ष तो मूठी भर का । मिनटों में टूटता और बंधता है तो सरकार को झूठ बोलने की क्या जरूरत थी। मप्र सरकार खुद को बचाने की जगह उन साहूकारों को बचा रही थी, जो किसानों की दो बीघा जमीन गिरवी रखकर ब्याज पर पैसा दे रही थी। अगर देश का यही हाल तो बैंक और फाइनेंस कंपनी को सरकार राहत क्यों देती है। बंद कर दें। जब अनाज उगाने वाला किसान साहूकारों के हाथों ब्याज की चक्की पीसकर मर जाए, तो ऐसी सरकारी सुविधा का क्या लाभ । फिर रामराज्य का क्या मतलब। शायद रामराज्य का आधुनिक काल में एक ही मतलब हैं सबकुछ भगवान भरोसे। फिर सरकार क्य़ों और आम आदमी टैक्स देकर ऐसी सरकार को क्य़ों पाले। 
 मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सोचना होगा। क्या प्रदेश में सबकुछ सही है। जब महानायकों का जादू एक समय के बाद खत्म हो गया तो शिवराज का क्या चीज हैं और कब तक अपने दमखम पर पार्टी का जीताएंगे। जिस दिन मोहभंग हुआ, उस दिन पार्टी दरकिनार करने में गुरेज नहीं करेगी। इतिहास अपने आपको दोहराता है, शिवराज के साथ भी ऐसा होगा।

Thursday, 14 July 2016

इंतज़ार कीजिये नजमा के मजमे का


मदारी के खेल में कुछ भी नया नहीं होता। वह मजमा जमाता है। उसमें वही होता है, जो सुना था। जो देखा है, और यकीनन, केवल वो, जो दिखने वाला है। राजनीति में भी यही होता है। कोशिशें।  बहुत कम पवित्र साधन के साथ। बहुत ज्यादा घोर अपवित्र तिकड़मों के साथ। पहले का नतीजा अक्सर असफल होता है। दूसरे का नतीजा अक्सर सफल। हताश कर देने वाले, आश्चर्यजनक रूप से, लेकिन अब चौंकाने का यह भाव सामान्य रूप ले चला है। इसलिए, यदि यकायक नजमा हेपतुल्ला अपने मंत्री पद से वीतरागी होने की मुद्रा में इस्तीफा देती हैं, तो इस मजमे में कुछ नया नहीं है। केवल कुछ खोजने के विषय हैं। खोज केवल ऐसी, जैसी किसी डॉक्टर के कहने पर कोई पैथोलॉजिस्ट किसी मरीज की बीमारी की खोज करता है।  डॉक्टर भी लक्षणों से बखूबी जानता है कि बीमारी क्या है और पैथोलॉजिस्ट। उसको तो यही इंतजार रहता है कि डॉक्टर की तरफ से अब ऐसा कौन आ रहा है, जिसकी बीमारी डॉक्टर भी जानता है, और वह खुद भी। अंत में पैथोलॉजिस्ट रिपोर्ट लिखता है। मरीज को फलाना बीमारी है। डॉक्टर वह रिपोर्ट यूं देखता है, जैसे वह पहली बार ऐसा कुछ देख रहा हो। फिर कहता है, आपकी हालत ठीक नहीं है। फला-फला चीजों से परहेज कीजिए।
खोज ये कि ऐसा क्या हो गया था कि चंद दिनों पहले ही मोदी मंत्रिमंडल के आशंकाओं से (75 प्लस के फॉर्मूल के चलते अपने लिए) भरे विस्तार में भी निरापद की श्रेणी में आ गईं नजमा हेपतुल्ला ने यकायक मंत्री पद को छोड़ दिया? (या उनसे यह छीना गया?)इसका जवाब शायद कल तक मिले, या जवाब के रूप मेें  केवल अटकलें हाथ लगें, लेकिन एक बात तय है, नजमा ने इस्तीफा अपने मन से तो नहीं ही दिया होगा। नजमा कांग्रेस में लम्बा समय गुजार चुकी हैं। वहां से सियासत का जो सबक उन्होंने सीखा, वह कम से कम उन्हें खुद-ब-खुद केंद्रीय मंत्री का पद छोडऩे की तालीम तो कतई नहीं देगा। बाद के वर्षों में भाजपा का एनडीए से मिलकर जो चरित्र हुआ, वह भी ऐसी कोई घटना का साक्षी नहीं बनता नजर आता। किसी भी नजमा के लिए नहीं। सवाल यह है कि नजमा के रूप में सामने आया यह सियासी मजमा क्या कह रहा है। जवाब भाजपा का कोई डॉक्टर देगा या पैथोलॉजिस्ट? इसके लिए इंतजार कीजिए, बहुत थोड़ा इंतजार...........

Monday, 11 July 2016

स्मार्ट सिटी को लेकर कितने स्मार्ट हैं 'हम'

मोदी सरकार बनने के बाद से ही स्मार्ट सिटी चर्चा का विषय रहा है। हालांकि यह कांसेप्ट नया नहीं है, यूके से हरेक देश में इस पर काम शुरू हो चुका हैं। भारत में अन्य योजनाओं के तहत यह भी बहुत ही बाद में शुरू होगा। स्मार्ट सिटी एक तरह से बाजारवाद की देन है, जिस तरीके से कंपनी दारा उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के  लिये तरह-तरह के आइडिया निजाद करती है, उसी तरीके से स्मार्ट सिटी कांसेप्ट से हरेक वर्ग के बिजनेसमैन को काम मिलेगा यानि आय के नए स्रोत सामने आएंगे। स्मार्ट सिटी शुरू करने से पहले हमें देखना होगा कि भारत या कोई भी राज्य इसके लिये कितना उपयुक्त है या अभी इन राज्यों , जिले कस्बों में मूलभूत समस्या ही मुस्तैदी की तरह तैनात है। सरकार हरेक पांच साल में बदल जाती है, लेकिन यह देश के लोगों और साथ में ही सरकार का भी दुर्भाग्य है कि शहरों में आज भी समस्या मूलभूत सुविधा की बनी हुई है।
 भारत के कई राज्यों में बिजली की सुविधा नहीं है और किसी भी सरकार ने इस समस्या का निदान वचनबद्ध तरीके से नहीं किया, जिसका बाद में उदाहरण दिया जा सके। सड़क का भी यही हाल कुछ हद तक सफलता मिली है, लेकिन इस सफलता को पूर्ण कालिक नहीं कहा जा सकता। रोजगार और मकान की तो बात ही मत कीजिये। कुकुरमुत्ते की तरह निजी कंपनी खुल गई है, लेकिन श्रम कानून आज भी भगवान भरोसे ही चल रहा है। वेतन मिल गया तो अच्छा नहीं तो दूसरी कंपनी पकड़ लीजिए। फिर हम और आप कितने स्मार्ट हैं।
 आज भी माल के लिफ्ट को चलाने के लिये कहा जाए तो लोग पैदल चलना ज्यादा पसंद करते हैं। जिस देश में मूल समस्याओं को निराकरण नहीं हो सका हो, वहां स्मार्ट सिटी क्या काम। स्मार्ट सिटी का नाम सुनते ही ऐसा लगता है कि सरकार जनता पर जबरदस्ती यह योजना थोपना चाहती है।
 इस योजना के घोषणा के सालभर बाद इस ब्लाग को क्यों लिख रहा हूं। ऐसा आप सोचते होंगे। लेकिन शहर की खामियों से विगत दो चार दिन में ही चिरपरिचित हुआ हूं। भारी बारिश ने स्मार्ट सिटी की कहावत कुछ तरह बयां कर दी 'मिले मियां के मार नहीं पिये मियां ताड़ी'। मतलब यहां जनाव रहने का ठिकाना नहीं, बारिश अगर मूड में हो तो लोगों को ठिकाना ढूंढना पड़ता है। सरकार खुद नाले से तालाब के दृश्य को देखती है। आपका नाला ऐसा है, जो कचड़े को समाहित करने की जगह उगल देता हैं। ऐसे में आप स्मार्ट सिटी की खुद आप कल्पना कीजिए। नीचे पानी में सांप तैर रहा होगा और आप मोबाइल पर चैट करेंगे। ऐसा संभव नहीं या मोबाइल पर नगर निगम , बिजली विभाग को फोन करेंगे। यह भी संभव नहीं, सरकारी कर्मचारी इतना समझदार है कि मौके की नजाकत को भांप कर वह फोन ही डिस्कनेक्ट कर देता हैं या व्यस्त कर देता है। लो कर लो बात हो गए आप स्मार्ट।
स्मार्ट सिटी की कल्पना कई देशों ने अपने अपने तरीके सी की है, जहां पानी का जमाव न हो, मूल भूत सुविधा हो  और फिर स्मार्ट व्यवस्था हो, लेकिन देश में एक भी चीजे में स्मार्ट व्यवस्था है। आप खुद सोचिए , सरकारी योजनाओं में सबसे पहले रेलवे आरक्षण को आनलाइन तैयार किया गया। आरक्षण आनलाइन हुआ लेकिन कितने को इसका लाभ मिलता है। लोग आज भी कंफर्म टिकिट के लिये दलाल के पास ही पहुंचते है।
 सरकार अकसर आपको स्मार्ट बनाने की कोशिश में हैं। आपको कहती है स्मार्ट बनों, सब्सिडी छोड़ दो ,देश भक्त बनों, देश हित में काम करो। लेकिन सरकार और उसके मंत्री देश हित में कितना काम करते हैं। इस देश में सबसे ज्यादा सरकारी धनों का शोषण या दुरूपयोग राजनेता या ब्यूरोक्रेटेस कर रहे हैं। आप नजर घुमाकर देख लीजिये। जनता तो लोकतंत्र में मुलाजिम की तरह है। बस वोट के समय राजा बनती हैं या उल्लू यह आपको तय करना है। सोचिये कि हम ऐसा देश चाहते हैं या बदलता भारत। 

Friday, 8 July 2016

मौका परस्त हैं क्या एमजे अकबर

अगर राजनीति में सबकुछ जायज हैं, तो एमजे अकबर साहब को मौका परस्त कहना सही नहीं होगा। अकबर साहब कभी नरेंद्र मोदी को लेकर आग उगला करते थे। लेकिन भाईसाहब अब बीजेपी से सासंद और फिर मोदी कैबिनेट विस्तार के दौरान मंत्री बन गए है। मप्र से राज्यसभा सासंद होने के कारण आज उनकी स्वागत समारोह देखने का मौका मिला। बीजेपी सगंठन ने दो केंद्रीय मंत्रियों का स्वागत किया। आज एमजे अकबर साहब की चर्चा इसलिये कर रहा हूं कि रविश कुमार अपनी पीड़ा उनसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त की है। रविश कुमार को तो आप जानते ही होंगे, वहीं एनडीटीवी के प्राइम टाइम वाले। अच्छा बोलते है और अच्छी वाइस ओवर होने के कारण इस मुकाम तक पहुंचे है। उनका पत्र हमलोगों को भी पढ़ने को मिला। शायद वह लिखते ही है, सबको पढ़ने के लिये। इस पर एमजे अकबर साहब का क्या रिएक्शन है, ये वहीं जाने। लेकिन मप्र की राजनीति में अकबर साहब को सभी मौका परस्त कह रहे हैं, पता नहीं क्यों। क्या सफलता आपके घर तक चल कर आए और आपको इसको अपना लो..तो यह मौका परस्त है...तो मैं इसको मौका परस्त नहीं मानता।
  लोकतंत्र में सबको अपना अधिकार है। कभी विपक्ष पर तीखी प्रहार करने वाला सत्ता पक्ष से भी हाथ मिला सकता है। यह निर्भर उनकी स्थिति और परिस्थिति पर करता है। अकबर साहब ने भी एक समय मोदी को भरा बुरा कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं है कि मोदी इसको लेकर बुरा मान जाते। उस समय अकबर साहब की भूमिका कैसी थी। यह भी सोचना जरूरी है। इसके बिना आप किसी को मौका परस्त नहीं कह सकते।
    समय के साथ इंसान का भाग्य भी बदलता रहता है। यहीं समय की धुरी है, जब मोदी के साथ अकबर साहब भी बैठेंगे। हो सकता है कि अगर विपरित दिशा में समय होगा, तो इतिहास फिर बदलेगा। ऐसे में किसी को मौका परस्त कहां जाना कितना उचित है। यह मैं आप पर छोड़ता हूं कि इसका आकंलन आप ही कर लीजिए। राज्यसभा के चुनाव के दौरान अकबर साहब से बीजेपी प्रत्याशी के रूप में मुलाकात हुई। सभी पत्रकारों से चर्चा चल रही थी। मुझे तो काफी सुलझे हुए इंसान और राजनीतिज्ञ लगे। बिना काम के भी लोगों से हाल समाचार अकबर साहब लेते रहते हैं। कभी नहीं देखा और न अब तक कभी सुना कि अकबर साहब मौका परस्त है, लेकिन मंत्री बनने के बाद से ही यह चर्चा सुनने को मिल रहा है कि यह मौका परस्त हैं।

Thursday, 7 July 2016

जितनी मुंह उतनी बातें

भोपाल। अगर मंत्रिमंडल विस्तार के बाद सबकुछ ठीक था तो सीएम क्यों अचानक नागपुर जाना पड़ा। संघ और सगंठन में बेहतर तालमेल मिलाकर चलने वाले मुख्यमंत्री के लिये ऐसी नौबत क्यों आई कि उन्हें अचानक संघ के दरबार में जाकर हाजिरी देनी पड़ी। मुख्यमंत्री के रूप में शिवराज का यह तीसरा कार्यकाल पूरा होने के बाद संघ के सामने किस बात को लेकर सफाई देना पड़ा।
जब ७५ के फार्मूले पर खुद प्रधानमंत्री ने नहीं माना तो शिवराज को किसके दवाब में आकर दो मंत्रियों का इस्तीफा लेना पड़ा। बीजेपी में व्यापमं घोटाले के बाद लक्ष्मीकांत शर्मा का इस्तीफा, पूर्व वित्तमंत्री राघवजी का इस्तीफा और पार्टी से बाहर किया जाना सबको समझ में आता है, लेकिन सरताज के साथ जो कुछ भी हुआ है। यह किसी के गले से नीचे नहीं उतर रहा है। गृहमंत्री बाबूलाल गौर के साथ जो कुछ हुआ वह भी एक हद तक सही है। कारण नखड़ैल मंत्री को ज्यादा दिन आप झेल नहीं सकते। लेकिन सरताज तो बिल्कुल सीधे थे और वो संघ और सगंठन के साथ मिलकर काम कर रहे थे। मध्य प्रदेश में ही नहीं उनकी पार्टी हाईकमान से सीधे तौर पर चर्चा होती रहती थी। इनको हटाने को लेकर एक आकंलन यह भी माना जा रहा है कि केंद्रीय लोक निर्माण मंत्री से बेहतर तालमेल नहीं बैठाने के कारण बाहर का रास्ता दिखाया गया है, वहीं दूसरी तरफ यह भी कहा जा रहा है कि पार्टी के अंदरूनी गतिविधियों में सरताज कमजोर साबित हो रहे थे। इस कारण से उनको हटाया गया है। इसको लेकर जितनी मुंह उतनी बातें हो रही है और होगी भी।
 वहीं सरताज ने अब अपने लिये सीधे संपर्क करना केंद्रीय मंत्रियों से शुरू कर दिया है। जो बीजेपी देशभक्ति की बात करती है वह बीजेपी बुजुर्गों को कैसे आदर नहीं दे सकती। भारत माता का आदर करना उचित है, लेकिन जो इंसान जिंदा है, उसको तो आदर दे दो। अगर भारत माता वास्तविक रूप में होती तो बीजेपी के इस छलावे से उन पर क्या बीतती।
आखिर शिवराज ने यह सब क्यों किया। आज नहीं तो कल यह भी सामने आएगा। क्योंकि मुख्यमंत्री बहुत ही सुलझे हुए वाचक है और आज नहीं तो कल सबके सामने इसका कारण बताएंगे। फिलहाल जब तक कारण नहीं मिल रहा है, तब तक जितनी मुंह उतनी बातों से ही काम चलाना होगा। 

Wednesday, 6 July 2016

रियो से भारत की उम्मीदें .......

पूरे विश्व के अोलंपिक खिलाड़ी रियो ओलंपिक प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये  गतंव्य पर पहुंच चुके  हैं। भारत में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रियो ओलंपिक में भाग लेने वाले खिलाड़ियों से मुलाकात की और विदा किया।  रियो से भारत का पुराना नाता रहा है। इस बार भारतीय हॉकी  टीम से लेकर लोगों को बहुत ही उम्मीदें, हालांकि हाकी को लेकर 36 साल बाद इतिहास अपने आपको दोहराएगा या फिर हॉकी टीम  लोगों की उम्मीदों पर पानी फेर देगा।
रियो ओलंपिक इतिहास से भारत का नाता पुराना रहा है। मिल्खा सिंह ने रियो ओलंपिक को लेकर अपनी किताब में बताया कि अपने प्रतिभागियों को देखने  की वजह से उनकी हार हुई थी। ओलंपिक खेलों में भारत को कई पदक मिल चुके हैं, लेकिन रोम ओलंपिक में मिल्खा सिंह की हार से यह तय हो गया कि जीत से ज्यादा इतिहास हार को याद रखती है। मिल्खा सिंह ने यहीं अपने किताब में  लिखा। मिल्खा की किताब "द रेस आफ माई लाइफ"में इसका जिक्र भी है। मिल्खा की आज भी इच्छा है कि मेरे इस हार को भारतीय जीत में बदलें। 
  वहीं स्व. मोहम्मद अली जो हेवी बॉक्सर थे, उनके कैरियर की शुरूआत यहीं से हुई थी। मोहम्मद अली को ही पहले कलेसकर क्ले के नाम से जाना जाता था। अली विश्व के सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ  बॉक्सर बने। 
रियो ओलंपिक के इतिहास पर जब चर्चा होगी तो इथियोपिया के अबीबी बिकिला की चर्चा के बिना अधूरी रह जाएगी। बिकिला एक मवेशी चराने वाला लड़का था, जो बाद में इथियोपिया की सेना में शामिल हुआ। बिकिला की दौड़ को देखकर सेना की तरफ से ओलंपिक में भेजा गया। उसकी दौड़ देखकर आज भी लोगों के रोएं खड़े हो जाते है। बिकिला ने ओलंपिक में 10 किलोमीटर की दौड़ के बाद नंगे पैर चार सौ मीटर की दौड़ को पार की थी।शायद वर्तमान में कोई इसको दोहराना नहीं चाहेगा।
    इस बार फिर रियो ओलंपिक को लेकर भारतीयों को उम्मीद है कि टेनिस और हाकी दोनों में भारत को मेडल जरूर मिलेगा।  
 रियो ओलंपिक को लेकर एक बार फिर सबकी नजर टिकी हुई है। खेल शुरू हो चुका है मैदान में प्रतिभा दिखाने का निर्धारित समय है और जो जीतेगा वहीं बाजीगर होगा और जो हार जाएगा उसकी खामियां इतिहास के गर्त में हमेशा से याद रखी जाएगी. जैसा कि अन्य महानतम खिलाड़ियों की रखी गई है। अब देखना होगा रियो ओलंपिक में भारत इतिहास बनाता है या फिर ........

'आनंदमय मंत्रालय या फिर आनंदमय जनता, तय शिवराज करें

भोपाल। एक फिल्म का डॉयलाग था "मैं अच्छा करने जाता हूं लेकिन बुरा हो जाता है।" भारत में शायद हरेक पार्टी के नेताओं पर यह डॉयलाग फिट बैठता है। मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान इन दिनों आनंद मंत्रालय पर काम कर रहे हैं।यह अभी एक कल्पना है, जहां सब आनंद रहेगा, जिससे जनता आनंदित रह सकेगी। यह विचार या सुक्षाव मुख्यमंत्री को एक गुरू ने दिया। शायद वह भी इसी फार्मूले पर खुद को और अपने शिष्यों को आनंदमय रखते होंगे। मैं उस गुरू से कभी नहीं मिला, अगर मिलता तो यह जरूर पूछता कि लोकतंत्र में आनंद कैसे होना चाहिये। ऊपर से नीचे या नीचे से ऊपर। स्वभाविक है लोकतंत्र में हमेशा आनंद नीचे से ऊपर की ओर होगा। लेकिन इसको लेकर प्रयास आज से नहीं। जब भारत में लोकतंत्र की नींव ऱखी गई तब से चल रही है। खुशहाल भारत , अानंदमय भारत , आनंद मंत्रालय। यह सब तब होगा जब सरकारी दफ्तरों में काम होगा। काम में पारदर्शीता लाने को लेकर बहुत प्रयोग किये गए। आनलाइन प्रक्रिया से लेकर एक्स से जेड तक। रेलवे ने जब टिकिट की आनलाइन प्रक्रिया शुरू की तो लोगों ने कहा कि अब गड़बड़ी नहीं होगी। लेकिन गड़बड़ियां हुई और आज भी हो रही है।
  आनंद मंत्रालय की बैठक जब शिवराज ले रहे थे ,तभी उन्हीं के मंत्री ने एक फाइल को लेकर मुख्य सचिव को घेरा। मंत्री महोदया ने कहा कि 11 माह से काम नहीं हुआ और फाइल वापस आ गई। सिंगल विंडों से कैसे काम होना चाहिये , यह अभी तक तय नहीं हुआ।
 जब सरकार के कामों पर मंत्री सवाल उठाएगा, तो ब्यूरोक्रेटेस और आम आदमी का सवाल उठाना लाजिमी है। अब प्रदेश में कौन आनंदमय हैं, ब्यूरोक्रेटेस, मंत्री या आम आदमी। ब्यूरोके्टेस अगर जनता के प्रति टेंशन में होते ,तो आनंदमय मंत्रालय की जरूरत पड़ती। लेकिन यहां तो उलटा है। अगर भरोसा न हो तो घुमकर आए, जरा मंत्रालय, सतपुड़ा भवन, विंध्याचल और भोपाल नगर निगम में। सीधे तौर पर काम हो जाए तो मान लीजिएगा कि आप का ग्रह गोचर बेहतर था, अन्यथा टालमटौल को वह पाठ पढ़ाया जाएगा कि आप भी टालमटौल में ट्रेनेड हो जाएंगे।
फिर आनंद मंत्रालय की जरूरत किसको हैं। यह आपको तय करना है। प्रदेश में विकास की क्या धारा है, वह किसी से छुपी नहीं है। विकास जनता के लिये हैं, या कंपनी के लिये। यह आप मत सोचिए विकास का लाभ उठाए। उसी तरह आनंद मंत्रालय से जनता को कितना आनंद मिलेगा और यह आनंद किस तरीके का होगा। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को यह प्रयोग पहले बीजेपी पार्टी में करनी चाहिये। जिसमें कार्यकर्ता से पदाधिकारी तक लोगों से सीधे संपर्क में रहते हैं और तब इसको कहीं लागू करते। काम में मजा तब आएगा जब आप टेंशन फ्री होगे। आप खुद सोचिये टेंशन फ्री कोई नहीं है। जिसके पास सक्रियता वाला दिमाग है, उसके पास टेंशन है। फिर आनंद मंत्रालय से क्या होगा और जनता को इससे क्या मतलब। आप तो चुनावी घोषणा के समय जो वादे किए गए थे, उस पर फोकस करों। यूपी के मुख्यमंत्री ने एक दिन पूर्व ही कहा कि जो चुनावी घोषणा समाजवादी पार्टी ने की थी, उसे लगभग पूरा कर लिया गया है। मगर सीएम साहब उस घोषणा के साथ यूपी की जनता को अापने बहुत कुछ तोहफे में भी दिया है। खैर बात तो मध्य प्रदेश की हो रही है। वह भी आनंद मंत्रालय की। इस पर एक मित्र से चर्चा कर रहा था, उसने चुटकी लेते हुए कहा कि आनंदमय मंत्रालय की जगह आनंदमय बीजेपी होनी चाहिये। कैबिनेट विस्तार के बाद उनको सबसे ज्यादा जरूरत है।
 आनंद की जरूरत तो सबको है। सरकार मंत्रालय और जनता को किस तरह का आनंद देना चाहती है। कभी -कभी शरीर में कोई घाव या हिस्सा अगर स्थाई तौर पर दर्द देता है, तो हमलोग उसका भी आनंद लेते हैं। अब मुख्यमंत्री खुद तय करें कि आनंद , सुखमय होगा या वो दर्द भरा। 

Tuesday, 5 July 2016

व्यापमं घोटाला कांग्रेस के लिये क्या थी, न्याय या फिर राजनीति!


भोपाल। व्यापमं घोटाले को जिस तरीके से कांग्रेस ने विधानसभा सदन से लेकर सड़क तक उछाला। फिर सीबीआई जांच की मांग की और जब सीबीआई जांच शुरू हुई तो आरोपियों की जमानत होने लगी। लेकिन कांग्रेस ने अपनी चुप्पी तक नहीं तोड़ी। आखिर लोकतंत्र में इतना बड़ा मजाक न्याय के साथ क्यों हुआ। आरटीआई एक्टिविस्ट ने सोशळ मीडिया से लेकर हरेक जगह विरोध किया और अब अकेले अलग थलग पड़ गए। जिन लोगों ने कोर्ट में इस मुद्दे को उछाला उसे कांग्रेस राज्यसभा पहुंचाकर पुरस्कृत कर दिया गया। क्या एक विपक्ष की यही जिम्मेदारी होती है कि न्याय दिलाने के नाम पर राजनीति गोटि सेंकी जाए या न्याय का मतलब यह होता है कि जब तक न्याय नहीं मिले तब तक लड़ाई जारी रहे। कांग्रेस पार्टी जो अपने आपको आजादी के इतिहास और अपने पूर्वजों के नाम पर राजनीति करती रही है। ऐसा लगता है कि कांग्रेस में कितना बदलाव हुआ है और कितना बदलाव होगा। इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।
   लोकतंत्र में एक विपक्ष की भूमिका अहम होती है। यह बीजेपी से कांग्रेसियों को सीखना होगा। संसद और विधानसभा में विपक्ष बैठक कर उस जोरदार तरीके से सरकार को घेरी कि आज सत्ता सुख में बैठी है। वहीं कांग्रेस जिसके पास सत्ता सुख का अनुभव है, लेकिन विपक्ष का अनुभव बिल्कुल नहीं है। इसी का पूरा फायदा बीजेपी को मिल रहा है। लोकसभा से लेकर जिन राज्यों में कांग्रेस विपक्ष में हैं , वहां यही हाल है। जनता किस पर भरोसा करें, सत्ता पक्ष से न्याय की कोई उम्मीद नहीं है, विपक्ष मदमस्त हाथी की तरह है। इच्छा हुई तो मुद्दा उठाया और बिना अंजाम तक पहुंचाए रणछोड़ की तरह चल दिये। आजादी के बाद कांग्रेस में राजघराने की मनमर्जी ही  चल रही है। देश की सबसे पुरानी पार्टी का यह हाल सोचनीय है।
कांग्रेस दुविधा में हैं। राहुल के हाल से जनता परेशान है। युवराज को जनता की फिक्र ही नहीं है और उनको सीखने में कितना समय लग जाएगा। इसके बारे में तो उनके गुरू भी कुछ नहीं बोलते। हालांकि जिंदगी हर पल सीख देती है। इसका यह मतलब नहीं है कि कांग्रेस के युवराज जीवन भर सीखते रहे। वहीं कांग्रेस की दूसरी नेत्री प्रियंका वाड्रा को उनको भाई के कारण राजनीति का त्याग करना पड़ रहा है, क्योंकि प्रियंका अगर आगे आई तो राहुल का राजनीति कैरियर में विराम लग जाएगा। वैसे भी कांग्रेस के पास इतना है कि किसी को सोचने की जरूरत नहीं। उनका चल रहा है और इसी तरह चलता रहेगा।
 लेकिन उन लोगों का क्या होगा जो कांग्रेस के सहारे न्याय की तलाश में थी?

व्यापमं घोटाले के आरोपियों की जमानत मिलने के बाद कांग्रेस की स्थिति 

    

75 पार निकला शिवराज का सिर्फ फंसाना

त्वरित टिप्पणी सौरभ कुमार 

भोपाल। केंद्र में मोदी कैबिनेट का विस्तार हो चुका हैं। विस्तार में यूपी  और एमपी के तीन सांसदों को मंत्री के पद से नवाजा गया है। इससे पहले मप्र में शिवराज कैबिनेट के विस्तार के बहाने केंद्र के 75 पार फार्मूले से बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को इस्तीफा लेकर बाहर का रास्ता दिखा दिया। उस वक्त मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यह दलील दी थी कि पार्टी हाईकमान ने  उम्र के 75 पड़ाव कर चुके विधायकों को मंत्री नहीं बनना चाहती। इसलिये इस्तीफा देना होगा। यह फार्मूला मोदी कैबिनेट विस्तार में न चला औऱ न दिखा। इस फार्मूले को लेकर राजनीति सलाहकारों का आकंलन था कि केंद्र के दो मंत्री नजमा हेपतुल्ला और कलराज मिश्र को हटाया जाएगा। ऐसा आकंलन था, मोदी कैबिनेट का विस्तार भी हुआ, लेकिन 75 पार के इस फार्मूले का कहीं उपयोग नहीं हुआ। 
  मप्र के अधिकांश मंत्रियों, जनसमर्थकों सहित अन्य नेताओं की निगाहें इस पर टिकी थी। लेकिन ऐसा कुछ भी न देखने को मिला और नहीं पार्टी  हाईकमान के तरफ से इस पर कोई बयान जारी किया। जिन दो मंत्रियों से इस कारण से इस्तीफा लिया गया , वह अब अचंभित है। फिर आखिर क्यों इस्तीफा लिया गया, यानि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पार्टी हाईकमान के पाले में गेंद फेंककर  इस्तीफा ले लिया। संघ का एक फार्मूला यह भी था कि दूसरे पार्टी से इस पार्टी में आनेवालों को तत्काल पद नहीं  मिलेगा, शिवराज ने इस फार्मूले को भी तोड़ दिया। कांग्रेस से बीजेपी का दामन थामने वाले संजय पाठक मंत्री बन गए। संघ और सगंठन की कही जानेवाली बीजेपी पार्टी यहां भी नाराजगी से ज्यादा कुछ कर नहीं सकी। 
आखिर क्यों हुआ ऐसा 
शिवराज सिंह चौहान जब मुख्यमंत्री बने थे, तो राजनीति में नौसिखिए माने जाते थे। अपने प्रथम कार्यकाल में उन्होंने वहीं सब किया , जो पार्टी पदाधिकारी और हाईकमान चाहते थे। पहला साल मुख्यमंत्री ने पार्टी के लिये ही नहीं बल्कि ब्यूरोक्रेटेस के इशारे पर  भी काम करते रहे। डंपर कांड के समय मुख्यमंत्री का पहला इंटरव्यू लेने का मौका मिला, तब उन्होंने इस कांड को लेकर जो बयान दिये थे, वह आज भी लोगों के दिमाग में भले ही नहीं हो, लेकिन मीडियाकर्मी के दिमाग में हैं। सीधा सरल और अपनी बात बेवाकी से रखने वाला पहला मुख्यमंत्री देखा था, जो डंपरकांड पर बोल रहा था। लेकिन समय के साथ शिवराज में भी परिपक्कता देखने को मिली। राजनीति  कूटनीति से चलती है। अब शिवराज भी कूटनीति की एक परिपक्ता देखी जा सकती है। मप्र के बाहर जिस तरीके से कैलाश विजयवर्गीय को भेजा गया, साफ था कि मप्र की राजनीति में शिवराज का सिक्का चलेगा, यहां वहीं रह सकता है, जो उसकी धुरी बन सके। व्यापमं घोटाले से जिस तरीके से मप्र को अंतर्राष्ट्रीय स्तर चर्चा में लाया, उससे राजनीति के ज्योतिषियों को लगा कि शिवराज को इस्तीफा देना पड़ेगा,लेकिन यह आकंलन गलत साबित हुआ और मुख्यमंत्री ने अपने सामांतर खड़े होने वालों को पार्टी से बाहर ही नहीं राजनीति से भी दूर कर दिया। बाबूलाल गौर का इस्तीफा लोगों को समझ में आ भी जाता कि वो बयानों और अपनी हरकतों के कारण पार्टी की किरकिरी करा रहे थे, लेकिन सरताज सिंह के लिये क्या बहाना शिवराज देंगे। लोक निर्माण विभाग को सही तरीके से पटरी पर लाने में सरताज बेहतर काम कर रहे थे,तो फिर उनके साथ ऐसा क्यों हुआ। ई गर्वेंनेस और पार्टी में पारदर्शीता की बात करने वाले शिवराज ने इसमें पार्दर्शीता क्यों नहीं दिखाई। अब सवाल तो उठेंगे विरोध भी अपने तरीके से होगा, लेकिन शिवराज की मंशा क्या है, ये तो शिवराज और उनके सिपासलाहकार की जान सकते हैं।