Tuesday, 19 September 2017

'जापानी बुलेट का विरोध, जापानी तेल ...'

जापानी बुलेट ट्रेन का विरोध टीवी से लेकर आम लोग कर रहे है..टीवी पर आपको जापानी ट्रेन की विफलता के कई कारण गिनाएं जाएंगे...यहां तक कहा जा रहा है कि जब यूरोपीय देश बुलेट ट्रेन का उपयोग नहीं कर रहा तो हम क्यों करें। कई राजनीतिक पार्टी इसके टिकिट के आंकलन में जुटी है, कि इसका किराया कितना होगा। बुलेट ट्रेन के फायदे और नुकसान की राजनीति देश में हो रही है...इसी बीच इसका शिलान्यास हुआ और कांग्रेस की इस योजना का श्रेय बीजेपी लेकर चली गई ...जैसे कि जीएसटी... सहित अन्य योजनाओं को बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर लिया गया। अकसर कॉपी पेस्ट करने वाला आदमी इस तरह की चोरी बड़े ही चालाकी से करता है। 
अब बात जापान की बुलेट ट्रेन का। भारतीय ट्रेन इसके आगे कुछ भी नहीं है...लेकिन भारतीय ट्रेन में मैनेजमेंट की बेहतर जरूरी है..यहां जिम्मेदारी तय नहीं किये जाने के कारण ट्रेन पटरी से उतर जाती है। फिर भी अच्छे सपने का हक आम से लेकर खास तक को है। जापानी ट्रेन से भी हमें बेहद उम्मीद है। भारतीय यात्रियों को इससे बेहद उम्मीद है। ज्यादा पैसा देकर कम समय में मंजिल तक पहुंचा देगी। इससे रोजगार विकास को गति मिलेगी। ऐसी बात मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में हो रही है....आंकलन करने का अपना अपना आयाम है। 
जापानी बुलेट ट्रेन के इतने सारे नकारात्मक पहलुओं को सुनने के बाद मैंने सोचा कि जापानी तेल पर कभी लोगों ने इतना नहीं इस देश में बोला होगा। अगर आप जापानी तेल से वाकिफ नहीं हो तो आप भारत के सभी रेलवे स्टेशन पर इसका विज्ञापन देखे जरूर होंगे अगर नहीं देखें तो जाकर मेडिकल की दुकान में पूछ लीजिएगा। ध्यान रखिएगा कि मेडिकल का दुकान मोहल्ले या किसी पहचान का नहीं हो अऩ्यथा अकारण ही आपको बहुत कुछ भगोना होंगे। 
   इस तेल की सफलता औऱ विफलता को लेकर कोई बात नहीं करता, जबकि इसके उपयोग करने वालों को इस बारे में बोलना चाहिये। लेकिन यहां पर लोगों को बोलने की आजादी में कमी आ जाती है। फिर भी इसका व्यापार जबरदस्त है और खास बात यह है कि इसे बनाने वाली कंपनी भारत की है और यह एक जुमले की तरह जिसमें जापानी तेल की बात कही जाती है। विश्व बाजार में जापान की पहचान एक मजबूत और टिकाऊ चीजों के लिये रही है। चाहे इलेक्ट्रानिक आइटम हो या इंसान। लेकिन यह दुर्भाग्य है कि उसके बाजार में चाइना ने बर्बाद कर दिया। फिर भी आज भी इलेक्ट्रानिक दुकान पर एक बार लोग चाइना या जापान मेड पर लोग पूछते जरूर है। मतलब जापानी बुलेट ट्रेन भी आपको टिकाऊ ही मिलेगी लेकिन भारत में आने के बाद और भ्रष्ट्राचार होने के बाद इसकी हालत भी जापानी तेल की तरह हो जाए...इसकी गारंटी आप ले सकते हो...क्योंकि फुसी बम की कोई गारंटी इस देश में नहीं लेता है। क्योंकि यहां बहरी सरकार , कोर्ट को आम लोगों को छोड़कर कुछ नहीं दिखता। 

Saturday, 9 September 2017

मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे.....इसी बहाने कई मुसाफिर मेरे पास आएंगे...


मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे....मेरे बाद तुम्हें मेरी याद दिलाने आएंगे...थोड़ी आच बची रहने दो थोड़ा धुआं निकलने दो...कल देखों कई मुसाफिर इस बहाने आएंगे...। एक शायर की जिसके शेर नेताओं के तकरीरों में जान फूंकते रहे...नेता तो सड़क से उठकर संसद तक  पहुंच गए मगर शायर पीछे छूट गया... अगर इस मलवे की जगह दीवारें खड़ी होती और घर पर दरवाजा होता तो इसका पता होता उनहत्तर बटे आठ। साउथ टीटी नगर स्थित यह मकान मलवे में तब्दील हो चुका है। यह वहीं सरकारी मकान है जो दुष्यंत कुमार के घर के रूप में पहचाना जाता था। विकास की आंधी में दुष्यंत का घर मलवे में तब्दील हो चुका है और बस अब बचा है तो उनकी यादों जो कि दुष्यंत संग्राहालय में कैद है और उसको भी खाली करने का नोटिस दिया जा चुका है। वो भी संग्राहालय अपने होने का अंतिम मियादी गिन रहा है। 
दुष्यंत की यह कविता इमरजेंसी के वक्त लिखा था " मत कहो कि आकाश में कोहरा घना है ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। सूर्य हमने भी नही देखा सुबह से, क्या करोगे सूर्य का क्या देखना है,,, या फिर " वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिये,,,, या ये साफगोई कि " हमको पता नहीं था हमें अब पता चला, इस मुल्क में हमारी हुकुमत नहीं रही,,, और फिर वो लाइनें जिनके बिना नेताओं की तकरीर पूरी नहीं होती  " कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो,,, या अरविंद केजरीवाल की पसंदीदा लाइन  "मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये,,, दुष्यंत  जी की लिखी ऐसी कितनी लाइनें हैं जो ऐसा लगता है कल ही बैठकर आज के लिये ही लिखी गयी हैं। और वो लाइनें इन कमरों में ही बैठकर लिखीं गयी होगी। क्या विचार चलते होगे कवि के मन में कैसे वो उनको कागजों पर इस छत के नीचे बैठकर कागजों पर उतारता होगा और क्या उन्होनें कभी सोचा होगा कि कागजों पर उनकी लिखी लाइनें लोगों के दिलों में लिख ली जायेंगी और जुबान पर मोके बेमोके पर जुबान आ जायेंगी।

 वो सुंदर सी दुष्यंत  कुमार लिखी नेम प्लेट आलोक भाई के हाथों में है जो वो दुष्यंत  कुमार संग्रहालय के संचालक राजुरकर राज को देने के लिये लाये हैं। ये सब कब हुआ। बस कुछ दिन पहले ही हमें नोटिस मिला कि स्मार्ट सिटी में आपका मकान आ रहा है सामान समेट लीजिये। आनन फानन में हमने सामान समेटा और अगले ही दिन इसे समतल कर दिया गया। शायद बहुत जल्दी में हैं स्मार्ट सिटी वाले। हम ये भी नहीं बता पाये कि ये मकान तो दुष्यंत जी की पत्नी राजेश्वरी जी को सरकार ने जीवन पर्यंत के लिए दिया वो अभी मेरे साथ हैं उनको अभी हमने बताया नहीं है कि मकान टूट गया है हांलाकि मालुम पडेगा तो नहीं मालुम वो कैसे व्यक्त करेंगी। क्योंकि हम इस मकान में तकरीबन पचास साल रहे। यहीं बैठकर पिताजी ने अपनी सारी गजलें लिखीं। यहीं पर साहित्यकारों का जमघट लगा रहता था। इस घर सिर्फ लेखन से  जुडे लोग ही नहीं वो सारे लोग भी आते थे जो अलग अलग तरीके से जरूरतमंद होते थे उनको पता था कि पापा की बात बडे अफसर सुन लेते हैं। तभी वहां खडे वरिष्ट साहित्यकार राजेन्द्र शर्मा जी ने किस्सा सुनाया कि बालकवि बैरागी जब दष्यंत जी के निधन की खबर सुनकर यहां आये तो बताया कि बाहर उनको लाने वाला आटो चालक भी रो रहा है क्योंकि दुष्यंत जी की सिफारिश पर उसको आटो मिला था। भरे गले से आलोक कहते हैं ये मकान का टूटना उनके लिये छत और दीवार का मसला नहीं है बल्कि ये भावनात्मक दुख है हमारे और दुष्यंत जी के चाहने वालों के लिये। वो कहते हैं हैरानी इस बात पर ज्यादा होती है कि इमरजेंसी में वो लोग जो जेल में बंद थे और आज लोकतंत्र के सेनानी कहलाकर मोटी पेंशन पा रहे है उनकी आवाज ही तो थे पापा और आज यही लोग सत्ता में है मगर किसी ने भी इस घर परिवार की सुध नहीं ली। अरे ये मार्डन स्कूल है यहीं पर मेरी मां पढाती थी और सीएम शिवराज जी उनके विदयार्थी रहे हैं। खैर ये मकान तो विकास की आड मे टूट गया मगर थोडी दूर पर ही बने दुष्यंत कुमार स्मृति संग्रहालय को अब बचा लिया जाये क्योंकी  उसे भी बेदखली का नोटिस मिल गया है। दुप्यंत कुमार जी के घर का मलबा शिकायती लहजे में हमें मुंह चिढा रहा था और शायद यही कह रहा था ,,,खंडहर बचे हुये हैं इमारत नहीं रही, अच्छा हुआ सर पे कोई छत नहीं रही। हमने ताउम्र अकेले सफर किया हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही।।,,,



Friday, 1 September 2017

आओं तुम्हें खूबसूरत बना दूं: जिस्मफरोशी धंधा या मजबूरी



आजकल शहर में स्पा का प्रचलन तेजी से बढ़ा है या इसको कहें बैकांक जाने के लिये घंटों की दूरी का लोग अब इंतजार भी नहीं करना चाहते। डिजीटल औऱ न्यू इंडिया में सबकुछ तेजी से बदल रहा है। ऐसा दावा में नहीं सत्ताधारी सरकार कर रही है..इसलिये बैकांक की थाई मसाज आपके शहर में है। इसको आप विकास से जोड़ लीजिए या बेरोजगारी दूर करने के नयाब तरीके से। इसके विकास कुछ इस तरीके से हुआ सैलून... पार्लर ...मैंस पार्लर या पुरूष पार्लर कहिये..और अंत में यूनिसेक्स पार्लर....के बाद स्पा। 
  मध्य प्रदेश में निर्धारित आंकड़ा के अनुसार 1233 स्पा सेंटर हैं। भोपाल में इसका आंकड़ा कम है, लेकिन इंदौर में 220 स्पा सेंटर हैं। इन स्पाओं के प्रचार पर नजर डालेंगे तो मुझे एक पंच लाइन बेहद अच्छा लगा।"आओं मैं तुम्हें खूबसूरत बना दूं" यूनिसेक्स पार्लर में खूबसूरत शब्द का उपयोग मेल और फीमेल दोनो के लिये है। इसलिये भाषा पर मत जाए। इन दिनों चर्चा में स्पा सेंटर है। वो सुकून और शांति की तलाश में स्पा पहुंच रहे है या स्पा की आड़ में जिस्मफरोशी चल रही है। विकास जिस्मफरोशी का भी हुआ। तवायफ से स्पा सेंटर तक का सफर मजबूरी से धंधा बना दिया या कब बन गया किसी को पता ही नहीं चला।
 हाल ही में शहर के स्पा सेंटर पर पुलिस की कार्रवाई हुई है। शरीर को खूबसूरत बना देने वाली बालाएं जेल पहुंच गई। एक पत्रकार होने के नाते इच्छा हुई एक इंटरव्यू इन बालाओं का भी किया जाए लेकिन गिरफ्तारी के बाद कौन इंटरव्यू देता है। लेकिन पुलिस के सहयोग से कुछ घर का पता मिल गया। फिर क्या था। मैं उनके घर पर चला गया। मुझे नहीं पता था कि घरवालों को ज्यादा कुछ नहीं पता है। 
 पुराने भोपाल की तंग गलियों के एक तंग घर में पहुंचा, जिसकी एक दीवार अभी ही बनी थी। घर बहुत छोटा था , लेकिन घर देखकर उस घर की जीडीपी क्या होगी। इसका अंदाजा लगाया जा सकता। दरवाजे पर दस्तक हुई दरवाजा खुला तो एक महिला निकली। जिसकी उम्र 40 के आस पास होगी। मैंने परिचय दिया तो घर के अंदर बुला लिया। कमरा चार बाई चार का होगा उसमें परिवार के सदस्य पांच।जिसमें एक जेल में हैं। बातों की सिलसिला शुरू हुआ तो उसकी मां रोने लगी। उसकी मां को तो यह पता ही नहीं था कि उसकी बेटी स्पा में काम करती है। वह तो खबर नहीं छपने तक यह जानती थी कि उसकी बेटी प्रापर्टी डीलर का काम करती है। कुछ दिनों से न फोन आया और न वो। तो मां ने पता किया तो पूरी घटना सामने आई। मां की हिम्मत नहीं हुई कि जमानत के लिये किसी को कहा जाए। उस महिला ने बताया कि पति शराबी है और घर का खर्चा तक नहीं चलता। दिन रात शराब पीता है। पति दिन के समय भी शराब के नशे में था। बीच बीच में उसकी आवाज यह बता रही थी। बेटी ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं है, लेकिन खूबसूरत है और दूसरों को भी खूबसूरत बनाने की तमन्ना रखती है।इसलिये प्रापर्टी डीलर के यहां नौकरी कर ली और सैलेरी के अलावा प्रतिदिन कमिशन मिलता था। मां की बात सुनकर, मैं समझ गया कि कमिशन कहां से मिल रहा है। नोटबंदी के बाद किसने घर खरीदा है यहां तो नौकरी खतरे में है। उसकी मां ने दीवार की ओर ईशारा करते हुए कहा कि यह दीवार उसी के पैसे से बना है। परिवार में यहीं एक लड़की है जो कमा कर मां और दोनों भाई को पेट पालती ही नहीं बेहतर तरीके से रख रही थी। हमें सच्चाई पता नहीं थी वह बाद में चली। पिता को कोई मतलब नहीं है। हम क्या करें। मुझे कुछ पता नहीं है और ईश्वर ही कुछ रहम करें।उसके मां की बात सुनकर मुझे लगा कि दर्द को ज्यादा खरोदने से कोई मतलब नहीं है।
मैं वहां से आगे निकला। यह भी पुराने भोपाल का एक हिस्सा था। पिता ऑटो चालक है लेकिन खांसी और बीमारी ने उनको बेरोजगार कर दिया है। परिवार मुस्लिम है। जहां सबकुछ कुरान के हिसाब से अवैध है। बड़ी बहन जिसकी शादी हो चुकी है। एक भाई, एक बहन और मां -पिता इसके पालन पोषण की जिम्मेदारी उस लड़की के कंधे पर है, जिसने दसवीं पास किया है। अंग्रेजी बोल लेती है। बड़ी को बहन को सबकुछ पता है। उसने बताया कि स्पा का उसने ट्रेनिंग लिया था। उसके बाद शहर के हर छोटे बड़े स्पा में काम किया। शुरूआती दौर में उसे वेतन के रूप में आठ हजार रूपए मिलता था लेकिन आमदनी या टिप्स अच्छी होती थी। अनुभव बढ़ने के बाद वेतन 13 हजार तक पहुंच गया। शारीरिक दृष्टिकोण से बेहतर थी औऱ उसका चेहरा फिल्म अदाकरा आलिया भट्ट से कुछ हदतक मिलता था। इसलिये डिमांड ज्यादा था। लेकिन हमें यह नहीं पता था कि वह जिस्मफरोशी के धंधे में हैं। इसका पता अभी चला है। हमारा धर्म इसकी इजाजत नहीं देता। परिवारिक हालात से ऐसा लगा कि परिवार बेहद गरीब है। 

तीसरा पता था आशिमा मॉल से पीछे बसे एक फ्लैट का । फ्लैट बेहद ही खूबसूरत था। पांच लड़कियां साथ में रहती थी, उन्होंने ने ही लिया था। उसके दोस्तों ने बात करने से मना कर दिया। बस इतना बोली कि हमें नहीं पता था। स्वभाविक है जब इंसान मुसीबत में फंसता है तो अधिकांश लोगों को पता नहीं होता है कि वह क्या करती या करता थी। इसी दौरान दो ऐसी लड़कियों से मुलाकात हुई जो जेल से कुछेक साल पहले रिहा हुई है, वह भी एक महिला के सहयोग से। बाद में पता चला कि गोवा की रहने वाली वह लड़की भोपाल में उस महिला के स्पा में काम करने के लिये आ गई और उस अब उस महिला की हमराज है। इसके बाद मुलाकात एक  किन्नर से हुई जो मजा लेती थी...या देती थी..इसका पता नहीं। लेकिन समाज में किन्नर को स्पा में नौकरी देने का प्रचलन कब से शुरू हुआ इसका पता नहीं लेकिन पब्लिक डिमांड पर ही नौकरी मिली होगी, उसकी गारंटी ले सकता हूं। वह सबकुछ जानती थी औऱ  खुशी से पेशे में हैं। 

एक दिन पूरा लग गया इनसे मिलने और बात करने में। आखिर जिस्मफरोशी कहां नहीं है। निजी कंपनियों में जाकर देखियें जहां अधेड़ उम्र का बॉस अपने स्टाफ लड़कियों को ताड़ता है और बंद केबिन में सबकुछ की अभिलाषा रखता है और उसकी इच्छा पूरी भी होती है। नौकरी बचाने या अच्छे वेतन की लालच या मौज मस्ती के चक्कर में वो सबकुछ दे देती है जिसका धर्म औऱ समाज में इजाजत नहीं देता। ऐसी घटना आपके आस पास होती होगी। हालांकि इस पर कुछ लिखूंगा अगली बार। 
अब भी मैं यहीं सोच रहा है कि जिस्मफरोशी को धंधा कहूं या मजबूरी। क्योंकि मैं न्याय कैसे करूं। लेकिन समझ मैं आ गया कि इंसान के हिसाब से शब्दों की परिभाषा और शब्द भी बदल जाते है।
 



Saturday, 29 July 2017

42 साल लग गए 'आपातकाल' से निकलने में भारतीय सिनेमा को

kumar Saurabh
कहते है फिल्म समाज का आईना  होती है। पुरानी फिल्मों की बात करें तो ज्यादातर फिल्मों की कहानी समाज के दगोले नीति को उजागर करती थी। एक आम इंसान को समाज में किस तरह से जिंदगी औऱ परिवार का पोषण करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है, उसको दर्शाती थी। लेकिन समय के साथ समाजिक क्रूरता को दिखाने वाली सिनेमा का प्रचलन कम हो गया। मोदी सरकार में सिनेमा की कहानियों ने एक बार फिर करवट बदली और इंदू सरकार जो कि 42 साल पहले लगी आपातकाल की स्थिति को दर्शाने पर बनी। इस घटना पर फिल्म बनने में इतना समय क्यों लगा, यह आपको सोचने पर जरूर मजबूर कर देगा, जब भारत में लोकतंत्र है तो इस घटना क्रम पर फिल्म बनकर अब तक रिलीज हो जाना चाहिये।
    42 साल पहले आपातकाल की स्थिति कैसी रही और क्या हुआ, उसको सिनेमा पटल पर दिखाने में इतना समय लग गया, इसके पीछे की कहानी आसान नहीं रही होगी य़ा कांग्रेस के सरकार की दमन नीतियों ने इसको कभी फिल्म बनने नहीं दिया होगा। लेकिन लोकतंत्र की खासियत इस फिल्म के रिलीज होने के बाद लोगों को समझ में आएगा। लोकतंत्र में सबको मौका मिलता है औऱ मिला भी सरकार जब बदली तो नीतियां भी बदली। मैं सिनेमा को राजनीति से जोड़कर नहीं देखना चाहता क्योंकि मैं इससे जोड़कर देखूंगा तो फिल्म के साथ न्याय नहीं होगा।
 फिल्म इंदू सरकार भी बहुत कुछ बताती है। 1947 में हम अंग्रेजों की गुलामी से जरूर आजाद हो गए, लेकिन नेहरू परिवार ने गांधी के सपने को जिस तरीके से अधिकृत कर एकल कब्जा रखा, उससे आजादी हमें अब मिली। ऐसा आपको भी लगता है। नेहरू परिवार ने उनको ही नेता बनाया जो धनी थे या राजा -महाराजा. या फिर उनके लिये सबकुछ करने वाले कलेक्टर थे। इसके उदाहरण आपको आसपास मिल जाएंगे। आप नजर दौराए और सोचें तो कई उदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हुए मिलेंगे । या फिर नेहरू परिवार ने जाति की राजनीति के आधार उनको पार्टी में कद दिया। गांधी परिवार आज भी राजा महराजा और समाज में उच्च लोगों के आस पास घिरा हुआ है और इससे निकलना नहीं चाहता है। ये सिर्फ देश में हुकूमत करने का तरीका था। हम लोकतंत्र में रह जरूर रहे थे, लेकिन असली आजादी हमें नहीं मिली थी, जो मिला उससे ज्यादा हमसे लूट लिया गया। सरकार ने फिल्म मीडिया को भी अपने कब्जे में रखा। लेकिन यह हमेशा से रहा है, जब आपके समर्थक होते है, तो विरोधी तत्व भी होते है। विरोधी तत्व अपना पोषण विरोध करके करते है। यह राह बेहद कठिन होता है, लेकिन इसका अपना एक मजा है। आप कभी किसी राजघराना, सरकार या उच्च पद पर बैठे लोगों का विरोध करके देखियें आपको लड़ाई लड़ने में मजा जरूर आएगा। ऐसा भारतीय राजनीतिक के इतिहास में भी हुआ। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष को मजबूत बनाया तो विपक्ष को यह ताकत दी कि आप सत्ता पक्ष के तानाशाही को तोड़कर अपने तथा देश के लोगों को आजाद करों। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो पहले अब और आगे तक चलेगी।
इंदु सरकार ने देश में 42 साल पहले हुई क्रूरता को दिखाया, जो एक तरफा मानसिकता को दिखाता है। नेहरू परिवार से अगर गांधी का सरनेम छिन लिया जाए तो इस देश में क्या मिला नेहरू परिवार से । इसको भी जरा सोचियें। गांधी का सिपाही बाद उनका सरनेम लेकर गांधी बन जाता है, यह तब होता है जब समाज में बुध्दिजीवियों की संख्या गिनती की होती है। यहां बुध्दिजीवि कहने का मतलब है शिक्षित वर्ग की।
या आप कहियें कि गांधी के वंश का हक मारकर  नेहरू परिवार अपना भविष्य सुनिश्चिचत करता है। हालांकि यह बातें इतिहास में दफन है। वैसे उस समय विपक्ष को काफी संघर्ष करना पड़ा होगा अपने आपको जीवित रखने के लिये। उन समय के बारे में भी जरा सोचियें। संघ और उसकी भूमिका को भूलाया नहीं जा सकता। कांग्रेस के दुष्प्रचार के कारण संघ बदनाम हुआ है। लेकिन इतिहास में किये गए संघर्ष के कारण बीजेपी को आज सत्ता मिला है। इस देश को मोदी जैसे नेता की जरूरत थी या नहीं इस बहस में नहीं जाना चाहता, लेकिन बीजेपी या संघ को इसकी बेहद आवश्यवकता थी। क्योंकि यह काम करने की हिम्मत मोदी में ही है। यह कोई नहीं कर सकता। क्योंकि मोदी कलयुग के बिरजू है। मदर इंडिया फिल्म में बिरजू की कहानी आप सबको याद होगी। जब बिरजू सूदखोर 'लाला' से किस तरह विरोध करता है। मां भाई, समाज सब परेशान होते हैं, लेकिन यह भी अपने आपमें एक हक की लड़ाई है। इसे आप गलत नहीं कह सकते। समाज की क्रूरितियों को दूर करने के लिये हिंसा करना गलत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शासन या प्रशासन इस तरह की क्रूरितियों को दूर करने में विफल रहता है।
 बात अब इस फिल्म की करें, तो 42 साल बाद इस फिल्म को दिखाना का यह मतलब है कि आज के लोग जाने की क्या दिक्कत हुई थी, वैसे मोदी जी ने लोकसभा में भी कहा था कि आपकी कमजोर योजनाओं को ढोल तमाशा के साथ लोगों को बताऊंगा। शायद यह इसकी पहली कड़ी है। हालांकि फिल्म के शुरूआत के दृश्य की तरह यह कथा, कहानी और पात्र किसी भी तरह के जीवित का पार्टी विशेष पर आधारित नहीं है।

Wednesday, 26 July 2017

लोकतंत्र का यू उड़ता है मजाक, मूर्कदर्शन है निर्वाचन आयोग, फिर ठगी गई जनता

बिहार की राजनीति में बुधवार को राहू कुछ तरह से बदला कि एक झटके में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने इस्तीफा देकर अपने आपको पाक साबित कर दिया , लेकिन गुरूवार को गुरू ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री के पद पर बैठा दिया , लेकिन इस घटनाक्रम के बीच छलवा हुआ तो सिर्फ बिहार की जनता के साथ। सवाल यह उठता है कि भारतीय निर्वाचन आयोग को अब चुनाव के समय मत पत्र में जनता के समक्ष नोटों की तरह यह भी पूछना चाहिये कि अगर गठबंधन होती है तो किस पार्टी के साथ गठबंधन की जाए और इस पर भी जनता का मत लेना चाहिये।
 लोकतंत्र में जब जनता के दारा बहुमत से  चुनी हुई सरकार जब बनती है, तो महागठबंधन या गठबंधन होने पर जनता की वोटिंग से ही यह तय हो। तभी जनता के अधिकार की स्वतंत्रता है। अन्यथा ऐसा लगता है जैसे निर्वाचन आयोग औऱ राजनीति पार्टी गठबंधन या महागठबंधन के खेल में छलावा जनता के साथ हो रहा है। लोकतंत्र में कोई भी पार्टी खुद यह तय कैसे कर सकती है कि उसको किस राजनीति पार्टी के साथ गठबंधन करना है। या चुनाव के दौरान पार्टी यह स्थिति स्पष्ट करें कि वह गठबंधन करेगी तो किसके साथ करेगी और उसके साथ ही पांच साल तक गठबंधन चलाने का भी शपथ पत्र दें।
 लोकतंत्र के कमजोर नियमों का कैसे उपयोग करना है, उसे राजनीति पार्टी बहुत अच्छे काम कर रही है, क्योंकि अब जनता की सेवा का भाव खत्म हो चुका है, इसमें भी व्यवसायिकरण या प्रोफेशनलिज्म शामिल हो गया है। चुनाव कैसे जितना और कैसे हमें जनता और कानून को गुमराह करके वोट लेना है, इसका बखूबी इस्तेमाल पार्टी कर रही है।
 पार्टी आरक्षण जैसे मुद्दे पर अपने आपको दूर करने की जगह राष्ट्रपति भी दलित वर्ग का चाह रही है। सवाल यह भी है कि क्या देश की जनता को लगता है कि हमें राष्ट्रपति या राज्यपाल जैसे अहम पदों को समाप्त कर सरकारी खजानें के खर्चें पर रोक लगाना चाहिये। यह सवाल आज नहीं तो कल उठेगा। क्योंकि जनता का धन वसूलकर कोई भी सरकार यूं ही खर्च नहीं कर सकती। इस वंदिश लगाना जरूरी है, क्योंकि भ्रष्ट्राचार का जन्म भी यहीं से हुआ है।
 एक बार फिर से बिहार के लोगों के साथ ठगी पर बात करें तो बिहार में महागठबंधन लालू , नीतिश का समीकरण जब बना था तो जनता ने इसलिये वोट दिया क्योंकि वह बीजेपी के साथ नहीं जाना चाहती थी। अगर ऐसा नहीं होता तो बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलता। लेकिन नीतिश ने इस्तीफा और महागठबंधन तोड़कर बहती नदी की धार में शामिल होने में अपनी और पार्टी की भलाई समझी। लेकिन जनता तो पर ठगी गई। या यू कह लीजिए जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी है तब से जनता ठगी जा रही है। वो वादें औऱ कसमों को याद कीजिये जब 15 लाख और भ्रष्ट्राचार खत्म रोजगार मिलेगा।इन सबको लेकर बीजेपी जनता के बीच आई थी, लेकिन हुआ उलटा ही। सरकार ने सबसे ज्यादा सरकारी धनों का दुरूपयोग किया। विजय माल्या और ललित मोदी फरार है। 15 लाख का तो ही बात ही मत कीजिये साहब ये तो जुमला था औऱ भारतीय लोकतंत्र का बलात्कार जुमलें ने ही कर लिया औऱ भारतीय निर्वाचन आयोग मूकदर्शक बनकर देखता रहा।
 बिहार में भी यहीं हुआ । जब लोकतंत्र में जनता को वोट देने औऱ सरकार चुनने का अधिकार है तो राज्यपाल गणीतीय जोड़ तोड़ करके आंकड़ा पूरा करके सरकार बनाने का अधिकार कैसे दे सकती है। इन परिस्थितियों को राज्यपाल चुनाव का फैसला लें या निर्वाचन आयोग इस तरह के गठबंधन को लेकर नीति और नियम चुनाव शुरू होने से पहले रखें या मत पत्र में इसका प्रावधान हो।

Friday, 21 July 2017

भारत अपने ही "भूल" का खामियाजा भुगत रहा है "चीन " से




विश्व स्तर पर चीन भारत को कैसे घेरे और उसका दबदबा कम करे, इसको लेकर चीन ने जिस तरीके से पाकिस्तान को दोस्त बनाने में जुटा है, उससे साफ है कि भारत के अंदरूनी राजनीति में चीन दखल देना चाहता है। लेकिन चीन को ऐसा क्यों करना पड़ा, यह सवाल भारतीय मीडिया से गायब है और इसका जवाब कोई भी देने को तैयार नहीं है। भारत हमेशा से तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर दखलअंदाजी करता आ रहा है, जिसका चीन ने हमेशा से विरोध किया है। तिब्बती गुरू दलाई लामा को लेकर चीन और भारत हमेशा से आमने सामने की स्थिति में रहे है। 
   लेकिन अटल सरकार के बाद भारत ने तिब्बत को लेकर कुछ भी कहने से बच रहा है। इसके बारे में भारतीय इतिहास को टटोलने पर पता चला कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में बीजिंग दौरे पर चीन से एक अनुबंध करार किया था, इसके तहत  सिक्किम को भारत का हिस्सा माना जाए और इसके बदले तिब्बत को चीन का हिस्सा माना जाएगा। इसके बाद से ही राजनीति परिदृश्य चीन के साथ बदल गया। हालांकि यह गलती पहली बार नहीं हुई इससे पहले 1954 में नेहरू ने भी यही गलती किया। तिब्बत समझौते के तहत चीन का हिस्सा तिब्बत को माना गया। जबकि भारत मैकमोहन रेखा को अंतर्ऱाष्ट्रीय सीमा मानता आ रहा है, ऐसे में तिब्बत चीन का हिस्सा है औऱ मैकमोहन अंतर्राष्ट्रीय सीमा है। दोनों बातें एक साथ संभव नहीं है । जबकि वाजेपयी सरकार को रणनीतिक तौर पर इसे टालना चाहिए था। उस वक़्त हमने तिब्बत के बदले सिक्किम को सेट किया था। चीन ने सिक्किम को मान्यता नहीं दी थी लेकिन जब हमने तिब्बत को उसका हिस्सा माना तो उसने भी सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया। उनका कहना है कि "इसके बाद ही नाथुला में सरहद पर ट्रेड को मंजूरी दी गई. नाथुला से इतना बड़ा व्यापार नहीं होता है कि इतनी बड़ी क़ीमत चुकानी चाहिए थी, तब ऐसा लगता था कि यह एक अस्थाई फ़ैसला है और बाद में स्थिति बदलेगी। उस वक़्त भारत ने दलाई लामा से भी बात की थी और उन्होंने इसकी मंज़ूरी भी दी थी। 
 अब सवाल यह उठता है कि भारत में चीन का निवेश है, अगर युध्द की स्थिति बनती है तो चीन को आर्थिक रूप से भी नुकसान उठाना पड़ेगा।वहीं इस पूरे मामले में भूटान भी चुप बैठा हुआ है। उसके तरफ से किसी तरह का राजनीतिक पहल नहीं किया जा रहा है। 

  

Sunday, 16 July 2017

जनता का सेवक जनता के बीच जाए...

मध्य प्रदेश के जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा लगातार चुनाव आयोग के निर्णय को लेकर कोर्ट दर कोर्ट संघर्ष कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है, राजनीति में नरोत्तम मिश्रा जनता की सेवा के लिये नहीं बल्कि अपना कैरियर बनाने आए थे। पद का इतना मोह और नैतिकता खत्म होते मैंने राजनीति में देखा है। पहले आरोप लगने पर ही इस्तीफा देकर जनता के सेवक जनता के बीच जाकर सेवा में जुट जाते थे। लेकिन अब आरोप , जांच और फिर फैसला होने के बाद भी बेशर्मों की तरह पद पर बने रहते है। जब तक पार्टी हाईकमान धक्का देकर बाहर नहीं कर दें। आखिर क्यों?
 एक पत्रकार होने के नाते जब भी नेता का इंटरव्यू लीजिये तो यहीं कहेंगे जनता की सेवा के लिये राजनीति में आए है। जनता की सेवा के लिये राजनीति में आने की क्या जरूरत है आप एनजीओ या बिना एनजीओ के भी जनता की सेवा कर सकते हैं। नेताओं को कहना चाहिये कि जनता के अधिकार , विकास और बदलाव के लिये राजनीति में आए है, लेकिन कभी प्रशासनिक अधिकारियों ने इस तरह का ज्ञान नेताओं को नहीं दिया। इसका यही नतीजा है कि जनता की सेवा के नाम पर खुद की सेवा हो रही है। चुनाव से पहले दी जाने वाली संपत्ति का आंकड़ा खुद बता देता है कि नेताजी ने कितनी संपर्ति बनाकर उधोगपतियों को पछाड़ दिया है। भारत में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण जरूरत से ज्यादा धन की जमापूंजि है। आप जब तक इस पर रोक नहीं लगाएंगे तब सबकुछ समेटने की प्रवृति इस देश में खत्म नहीं होगी। जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा को चाहिये कि पार्टी को खुद इस्तीफा देकर कानूनी लड़ाई लडे़। लेकिन नरोत्तम  मिश्रा जानते है कि कानूनी लड़ाई जीत भी गए तो पार्टी दोबारा मौका नहीं देगी। इसलिये पद पर बने रहकर संघर्ष करने में ही भलाई है।
 मप्र के राजनीति में खास बात यह रही कि शिवराज पर संकट लाने वालों की राजनीति कैरियर ही खत्म हो गई। शिवराज के सिपालाहाकरों ने हमेशा से उन्हें सुरक्षित रखा है। मप्र में अगला मुख्यमंत्री बीजेपी के तरफ से कौन होगा.... यह तय नहीं है या यू कह लीजिये कि कोई भी नहीं। यहीं गलती कांग्रेस के साथ भी हुई थी। दिग्गी के बाद प्रदेश में कोई नेता ऐसा नहीं था जो जनता के बीच जाकर वोट मांग सके, या जिसे जनता पसंद करती हो। आज नतीजा यह है कि कांग्रेस के पास विपक्ष नेता तक नहीं। जैसे तैसे कांग्रेस अपने आपको जिंदा रखी हुई है। अगर जनता ने कांग्रेस को मौका भी दिया तो मुख्यमंत्री कौन होगा इसका किसी को पता नहीं। जब मुख्यमंत्री का पता नहीं तो वोट नहीं । वहीं हाल बीजेपी का भी होने वाला है। भारतीय राजनीति को जनता सबको मौका देती है। अगर कांग्रेस को मौका मिला तो बीजेपी को फिर से बुरे दौर से गुजरना होगा। मध्य प्रदेश में पार्टी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
 रही बात जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा कि तो उन्हें इस्तीफा देकर जनता के बीच सेवक के रूप में जाना चाहिये। उनके अपने वरिष्ठ नेता ध्रुव नारायण  सिंह से  कुछ सीखना चाहिये। पार्टी हाईकमान के इशारे पर आज भी ध्रुव नारायण सिंह चल रहे है। पार्टी ने जो काम दिया वहीं किया। आज भी जनता के लिये दरबार लगता है औऱ समस्याओं का निदान होता है। भोपाल में ध्रुव नारायण सिंह ने अपनी अलग पहचान बनाई हुई है और इतने आरोप लगने के बाद भी अपने आपको राजनीति में जिंदा किये हुए है। यहीं काम नरोत्तम मिश्रा को भी करना चाहिये , जिससे कि एक अच्छा मैसेज राजनीति में जाए।

Saturday, 15 July 2017

एशियन देशों में कितना दमदार 'भारत'

जब आप एशियन देशों के भ्रमण पर निकलेंगे तो कई देशों के भ्रमण के बाद आपका भ्रम टूट जाएगा और सोच में पड़ जाएंगे क्या भारत सही में एशियन देशों में सबसे समृध्द और बेहतर देश हैं। बेहतर देश कहने का यह तात्पर्य है कि क्या भारतीन नागरिक के अधिकारों के लिये सरकार सजग है ?  ये अधिकार दिये जा रहे हैं या फिर उन अधिकारों को भारत सरकार लागू नहीं कर सकी है। आर्थिक रूप से अगर एशियन देशों के साथ हम इसकी तुलना करें, तो भारत को पिछड़ा देश आप मानेंगे। तीन घंटे की हवाई यात्रा का सफर कर अगर आप पड़ोसी देश थाईलैंड भी पहुंचेंगे तो आपकी करेंसी पिछड़ जाएगी और रूपया आधा हो जाएगा। जबकि थाईलैंड की आर्थिक स्थिति का अध्ययन करेंगे तो थाईलैंड को सबसे ज्यादा रेवन्यू टूरिज्म से मिलता है और टूरिज्म व्यापार को उन्होंने यूरोपीय लोगों को ध्यान में रखकर विकसित किया है। यही ंस्थिति आपको आपके पड़ोसी मूलक चाइना में देखने को मिलेगा। 
 चाइना के विकास का मुख्य कारण यूएस है। जब भारत रूस के दम पर हथियार खरीद रहा था, तब भारत को सिर्फ सुरक्षा के लिये हथियार दिये गए मगर रूस ने कभी विकास भारत को नहीं दिया। जबकि चाइना शुरू से ही अमेरिका का पिछलगू था और वह हथियार के अलावा यूरिपोयिन विकास को भी अपने देश में लाने में सफल हो गए। जबकि भारत ऐसा नहीं कर सका। 
वहीं नागरिक के अधिकारों की बात करें, तो भारत के नागरिक आज भी मूल अधिकारोंं के लिये संघर्ष क रही है..जैसे रोजगार...नागरिक सुरक्षा बीमा... बेरोजगारी भत्ता, आवास , भोजन जैसी अहम मुद्दा है और इन सब चुनौतियों के बावदजूद इंसानी जरूरतों को छोड़ देश में हिंदूत्व, गौ सरंक्षण जैसे मुद्दे पर जोरदार तरीके से काम हो रहा है। अब आप सोचिये कि इस देश का विकास कैसे होगा। 
 हम अकसर चीन को धमकी देते है कि चाइना समान खरीदना बंद कर दें, लेकिन भारतीय बाजार के अलावा सरकारी बाजार में भी दखल दे चुका हैं। भारत के सरकारी प्रोजेक्टों में चीन का अहम योगदान है और उस पर कार्य कर रहा है। बात करें उत्पादन और निर्माण को लेकर करेंगे तो भारत अभी काफी पिछे हैं, यूरोप की मुख्य कंपनियां चीन में निर्माण उत्पादन पर पैर जमाए हुए है। वहीं यूके जो हमेशा से भारत का खास दोस्त माना जाता रहा है, जो कभी हमारा शोषण किया था, उसकी डिजनी लैंड जैसी बड़ी कंपनियां भी चीनी बाजार में पहुंच गई है और लोगों को रोजगार उपलब्ध करा रही है। 
ऐसे में सवाल यह उठता है कि भारत में बीजेपी की सरकार बनने के बाद क्या हम मुख्य मुद्दे से भटक चुके हैं। भारत अब भी अपने आप में संघर्ष कर रहा है। 
बाजारवाद में अगर भारत विकास कर रहा है तो यहीं किसी सरकार की देन नहीं है, क्योंकि बाजार की तलाश में कई कंपनियां भारत आ रही है। उसको कोई भी राजनीति पार्टी श्रेय न लें तो बेहतर होगा। बाजारवाद में जो प्रतियोगिता है, वो अंतिम आदमी को सुविधा देने की बात करता है, जिससे कि उससे रेवन्यू अर्जित किया जा सके। जो पहले पहुंचेगा वहीं ज्यादा रेवन्यू कमा सकेगा। 
एशियाई देशों में श्रीलंका पाकिस्तान और छोटे देशों को छोड़ दे तो अभी हमें संघर्ष करना है। चाइना से बेहतर और मजबूत बनने के लिये हमें विकास, तकनीकि औऱ नागरिकों की सुविधा पर विशेष ध्यान देना होगा। यूरोपीयन देशों का भ्रमण करने के बाद भारतीय नेताओं को उसे विकास को बाजारवाद के रूप में नहीं, बल्कि नागरिक सुविधा के आधार पर लाना होगा।तभी भारतीय दमदारी साबित हो सकेगी।

Tuesday, 11 July 2017

जल्दी में नरोत्तम, आराम से न्यायपालिका

 चुनाव आयोग का डंडा मप्र के जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा पर उस समय पड़ा , जब वो अपने राजनीतिक कैरियर में सबसे मजबूत स्थिति में है। कभी शिवराज के संकटमोचक कहे जाने वाले नरोत्तम मिश्रा ने ऐसा नहीं सोचा होगा कि उनकी राजनीतिक कैरियर पर इतना बड़ा संकट आ जाएगा। हालांकि यह मामला पहले से आयोग के पास लंबित था। चुनाव आयोग ने इस पर निर्णय तब लिया जब पूरी सरकार किसान आंदोलन से संकट में थी।
 एक निजी चैनल ने शिवराज के उपवास का इस तरह उपहास उड़ाया और उस चैनल ने जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा के इस उपवास पर बयान भी सुनाया। इसके बाद ही जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा की उल्टी गिनती शुरू हो गई। अपनी छवि के अनुरूप शिवराज के लिये कुछ करने की गुरेज ने नरोत्तम के पाशा को उल्टा कर दिया। चुनाव आयोग के आदेश के बाद जनसंपर्क मंत्री ने कानून जानकार और सलाहकारों पर पैसा खूब खर्च किया। इस पूरी घटना से आप समझ सकते है कि न्याय पाने के लिये जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा को कितनी जल्दी है। लेकिन न्यायपालिका के लिये मंत्री क्या और संत्री क्या। जबकि एक समय नरोत्तम मिश्रा के पास विधि विभाग का भी कमान रहा है। फिर भी मामला हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा चुका है। गौरतलब है कि देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति के चयन को लेकर 17 जुलाई को वोटिंग होना है और इसका हवाला देते हुए नरोत्तम मिश्रा कानून फैसला भी जल्दी चाहते है। या आने वाले दिनों में उनकी परेशानी बढ़ने वाली है। इसको लेकर भी फैसला जल्द हो तो ज्यादा अच्छा है।
 संघर्ष के दौर में नरोत्तम मिश्रा ने कभी भी हार नहीं मानी। यह उनकी आदत में शुमार है, इसलिये भारतीय राजनीति को बेहतर समझ और कूटनीति का उपयोग करते हुए कम समय में बड़ा मुकाम बनाने में कामयाब रहे। आज भी चुनाव आयोग के फैसले को चुनौति देकर विजयी पाने की पूरी तैयारी कर चुके है।
विकल्प तो कई है लेकिन जनसंपर्क मंत्री इसको जीतकर फिर विधानसभा के सदन में वापस आना चाहते हैं। वहीं विपक्ष पूरी तरह से नरोत्तम मिश्रा को सदन से बाहर रखने के मूड में हैं। उनकी विधायकी खतरे में है,लेकिन नरोत्तम मिश्रा दिल के इतने बड़े है कि विपक्ष के नेताओं को हमेशा सहयोग ही किया। दुर्भावना में आकर कभी भी किसी पर कार्रवाई नहीं होने दी। शायद यहीं राजनीति कभी आपका नंबर है तो कभी मेरा। अब तो पक्ष और विपक्ष में ज्यादा अंतर नहीं रह गया। दोनों मिलकर देश को कम राजनीति दिशा में विरोध भर रहे है। पता नहीं यह विऱोध सत्ता पक्ष क्यों दिखा रहा है। निंदा और परिनंदा तो सोशल साइटस पर ऐसे छाया हुआ है, जैसे उनके फालोअर्स से ही चुनावी जीत तय होनी है। लोकतंत्र में जनता अब सोशल साइटस हो गई है। फेसबुक लाइव और टिविटर लाइव से ही देश की जनता को जुड़ रहे हैं। अच्छा ऐसे में पेड न्यूज की समस्या नहीं रहेगी।

Thursday, 9 February 2017

जवानी कहते हैं इसको.....मेरे आशिक है हर जगह

भोपाल। फिल्म कबाली का गाना ' सारा जमाना हसीनों का दीवाना...' इसी गाने की एक लाइन है जवानी कहते हैं इसको....मेरे आशिक है हरेक जगह। क्या सही में जवानी इसी को कहते हैं. राजधानी में विगत दो सालों में दो ऐसी बड़ी घटना हुई , जिसकी चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई और इन दोनों घटनाओं का मुख्य कारण 'जवानी ही' हैं।
   शेहला मसूद हत्याकांड की केस स्टडी करें तो इस जवानी के पीछे हसरत थी पैसा कमाने की। दो युवतियों के बीच ऐसी प्रतिस्पध्दा हुई कि एक को जान गंवानी पड़ी। वहीं दूसरी अब जेल में सलाखों के पीछे अपनी जवान दिनों को याद कर रही है। वहीं दूसरी घटना उदयन दास की...जो इतने जवान हो गए कि उस जवानी की आग में मां-बाप और फिर गर्लफ्रेंड की भी बलि चढ़ गई। उदयन के जवानी की कहानी की राजदार आकांक्षा थी और आकांक्षा अब नहीं रही।
 उदयन और आकांक्षा मैं कुछ तो समानता थी, जो एक दूसरे प्रति आकर्षित हुए या फिर ये जवानी का दस्तूर था। जब दो दिल मिलने की जगह जिस्म की जरूरतें पहले मिलने लगी। यह राज भी आकांक्षा के साथ ही खत्म हो गया, क्योंकि उसका प्रेमी साइको किलिर बन गया। समय के साथ उदयन के राज भी किसी भूकंप से कम नहीं है। न जाने उदयन ने अपनी जवानी की कितनी राज छुपा रखी हो। हालांकि जवानी का राज भी कुछ अजीब है....जो सभी का पर्दा में ही रहता है। पर्दानशी जवानी की अपनी कहानी होती है, जो इंसान के साथ दम तोड़ती है। लेकिन कुछेक ऐसे भी लोग है, जिनकी जवानी समय के साथ बाहर आती है तो समाज में उसका चेहरा सामने आता है।
उदयन का भी आया, जिसने जवानी की तृप्ति के लिये अपने मां-बाप को भी बलि चढ़ाने से गुरेज नहीं किया। जवानी की अपनी कहानी है। उम्र का ऐसा पड़ाव है, जिसकी चाहत बूढ़े से लेकर बच्चे तक को है। बच्चों को जवान होना और बूढ़ा इंसान हमेश जवान रहने का प्रयास करता है। यहीं सच्चाई है कई उत्पाद भी जवान होने के नाम पर ही बेचे जा रहे है। संस्कृति और संस्कार देखिये और सोचिये तो। आपको समझ में नहीं आएगा कि एक ही समाज में लोग इस तरह के भी रहते हैं.चलिये जवानी को अलविदा कहते है....और बात को यहीं देते है विराम

Friday, 27 January 2017

शाहरूख के 'रईस 'से 'काबिल' बनने की होड़ में कैलाश विजयवर्गीय

फिल्म अभिनेता शाहरूख खान इन दिनों फिर से एक बार बीजेपी नेताओं के निशाने पर है। शाहरूख खान की फिल्म रईस आज रिलीज हो रही है, लेकिन उनकी फिल्म ने एक बार फिर उनके राजनीतिक आलोचकों को सक्रिय कर दिया है। शाहरूख खान इन दिनों फिल्म के प्रचार प्रसार में जुटे है, तो इधर बीजेपी के नेता कैलाश विजयवर्गीय ने सोशल मीडिया का सहारा लेते हुए उन पर निशाना साधा है और देशभक्ति की पाठ पढ़ाने में जुटे हैं। 
 फिल्म रईस के रिलीज होने से कुछ दिन पहले ही बीजेपी के महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने उन पर निशाना साधते हुए कहा कि रईस की तुलना राहुल गांधी से और काबिल की तुलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से की। इसको लेकर कई बार सोशल मीडिया पर जमकर पोस्टरवार चल चुका है। शाहरूख अब ट्रेन से फिल्म प्रमोशन में जुटे है, जो इधर कैलाश विजयवर्गीय ने यह कहना शुरू कर दिया है कि देश में दाउद अगर ट्रेन से उतरेगा तो लोगों की भीड़ लगेगी। 
नंबर बढ़ाने की जुगत मे ंकैलाश 
एक बार फिर कैलाश विजयवर्गीय रईस पर निशाना साधकर बीजेपी के आला नेताओं के सामने अपनी काबिलयत दिखा रहे है। हालांकि बीजेपी कमान ने जो काम कैलाश विजयवर्गीय को सौंपा, उसमें उनको कोई खास सफलता नहीं मिली। कभी मध्य प्रदेश में राजनीति के गुरू और सबके चहेते कह जाने वाले कैलाश विजयवर्गीय की राजनीति कैरियर हाशिए पर है और ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं कि उनको भी राज्यपाल से पद से नवाज कर बीजेपी सेवानिवृत कर देगी।
क्या है पूरा मामला
फिल्म अभिनेता शाहरूख खान ने टालरेंस के मामले में बयान देकर उलझ गए थे, उसके बाद से ही बीजेपी के देशभक्त उनकी फिल्मों का विरोध करने में जुटे है। अपने बयान को लेकर फिल्म अभिनेता शाहरूख खान माफी मांग चुके हैं। फिर भी पूरे मामले को लेकर तूल दिया जा रहा है। इस विवाद के बीच शाहरूख खान की तीन फिल्में रिलीज हुई लेकिन बॉक्स आफिस पर ज्यादा नहीं चल सकी। अब देखना होगा कि बीजेपी के काबिल के सामने रईस क्या गुल खिलाती है।