बिहार की राजनीति में बुधवार को राहू कुछ तरह से बदला कि एक झटके में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने इस्तीफा देकर अपने आपको पाक साबित कर दिया , लेकिन गुरूवार को गुरू ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री के पद पर बैठा दिया , लेकिन इस घटनाक्रम के बीच छलवा हुआ तो सिर्फ बिहार की जनता के साथ। सवाल यह उठता है कि भारतीय निर्वाचन आयोग को अब चुनाव के समय मत पत्र में जनता के समक्ष नोटों की तरह यह भी पूछना चाहिये कि अगर गठबंधन होती है तो किस पार्टी के साथ गठबंधन की जाए और इस पर भी जनता का मत लेना चाहिये।
लोकतंत्र में जब जनता के दारा बहुमत से चुनी हुई सरकार जब बनती है, तो महागठबंधन या गठबंधन होने पर जनता की वोटिंग से ही यह तय हो। तभी जनता के अधिकार की स्वतंत्रता है। अन्यथा ऐसा लगता है जैसे निर्वाचन आयोग औऱ राजनीति पार्टी गठबंधन या महागठबंधन के खेल में छलावा जनता के साथ हो रहा है। लोकतंत्र में कोई भी पार्टी खुद यह तय कैसे कर सकती है कि उसको किस राजनीति पार्टी के साथ गठबंधन करना है। या चुनाव के दौरान पार्टी यह स्थिति स्पष्ट करें कि वह गठबंधन करेगी तो किसके साथ करेगी और उसके साथ ही पांच साल तक गठबंधन चलाने का भी शपथ पत्र दें।
लोकतंत्र के कमजोर नियमों का कैसे उपयोग करना है, उसे राजनीति पार्टी बहुत अच्छे काम कर रही है, क्योंकि अब जनता की सेवा का भाव खत्म हो चुका है, इसमें भी व्यवसायिकरण या प्रोफेशनलिज्म शामिल हो गया है। चुनाव कैसे जितना और कैसे हमें जनता और कानून को गुमराह करके वोट लेना है, इसका बखूबी इस्तेमाल पार्टी कर रही है।
पार्टी आरक्षण जैसे मुद्दे पर अपने आपको दूर करने की जगह राष्ट्रपति भी दलित वर्ग का चाह रही है। सवाल यह भी है कि क्या देश की जनता को लगता है कि हमें राष्ट्रपति या राज्यपाल जैसे अहम पदों को समाप्त कर सरकारी खजानें के खर्चें पर रोक लगाना चाहिये। यह सवाल आज नहीं तो कल उठेगा। क्योंकि जनता का धन वसूलकर कोई भी सरकार यूं ही खर्च नहीं कर सकती। इस वंदिश लगाना जरूरी है, क्योंकि भ्रष्ट्राचार का जन्म भी यहीं से हुआ है।
एक बार फिर से बिहार के लोगों के साथ ठगी पर बात करें तो बिहार में महागठबंधन लालू , नीतिश का समीकरण जब बना था तो जनता ने इसलिये वोट दिया क्योंकि वह बीजेपी के साथ नहीं जाना चाहती थी। अगर ऐसा नहीं होता तो बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलता। लेकिन नीतिश ने इस्तीफा और महागठबंधन तोड़कर बहती नदी की धार में शामिल होने में अपनी और पार्टी की भलाई समझी। लेकिन जनता तो पर ठगी गई। या यू कह लीजिए जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी है तब से जनता ठगी जा रही है। वो वादें औऱ कसमों को याद कीजिये जब 15 लाख और भ्रष्ट्राचार खत्म रोजगार मिलेगा।इन सबको लेकर बीजेपी जनता के बीच आई थी, लेकिन हुआ उलटा ही। सरकार ने सबसे ज्यादा सरकारी धनों का दुरूपयोग किया। विजय माल्या और ललित मोदी फरार है। 15 लाख का तो ही बात ही मत कीजिये साहब ये तो जुमला था औऱ भारतीय लोकतंत्र का बलात्कार जुमलें ने ही कर लिया औऱ भारतीय निर्वाचन आयोग मूकदर्शक बनकर देखता रहा।
बिहार में भी यहीं हुआ । जब लोकतंत्र में जनता को वोट देने औऱ सरकार चुनने का अधिकार है तो राज्यपाल गणीतीय जोड़ तोड़ करके आंकड़ा पूरा करके सरकार बनाने का अधिकार कैसे दे सकती है। इन परिस्थितियों को राज्यपाल चुनाव का फैसला लें या निर्वाचन आयोग इस तरह के गठबंधन को लेकर नीति और नियम चुनाव शुरू होने से पहले रखें या मत पत्र में इसका प्रावधान हो।
लोकतंत्र में जब जनता के दारा बहुमत से चुनी हुई सरकार जब बनती है, तो महागठबंधन या गठबंधन होने पर जनता की वोटिंग से ही यह तय हो। तभी जनता के अधिकार की स्वतंत्रता है। अन्यथा ऐसा लगता है जैसे निर्वाचन आयोग औऱ राजनीति पार्टी गठबंधन या महागठबंधन के खेल में छलावा जनता के साथ हो रहा है। लोकतंत्र में कोई भी पार्टी खुद यह तय कैसे कर सकती है कि उसको किस राजनीति पार्टी के साथ गठबंधन करना है। या चुनाव के दौरान पार्टी यह स्थिति स्पष्ट करें कि वह गठबंधन करेगी तो किसके साथ करेगी और उसके साथ ही पांच साल तक गठबंधन चलाने का भी शपथ पत्र दें।
लोकतंत्र के कमजोर नियमों का कैसे उपयोग करना है, उसे राजनीति पार्टी बहुत अच्छे काम कर रही है, क्योंकि अब जनता की सेवा का भाव खत्म हो चुका है, इसमें भी व्यवसायिकरण या प्रोफेशनलिज्म शामिल हो गया है। चुनाव कैसे जितना और कैसे हमें जनता और कानून को गुमराह करके वोट लेना है, इसका बखूबी इस्तेमाल पार्टी कर रही है।
पार्टी आरक्षण जैसे मुद्दे पर अपने आपको दूर करने की जगह राष्ट्रपति भी दलित वर्ग का चाह रही है। सवाल यह भी है कि क्या देश की जनता को लगता है कि हमें राष्ट्रपति या राज्यपाल जैसे अहम पदों को समाप्त कर सरकारी खजानें के खर्चें पर रोक लगाना चाहिये। यह सवाल आज नहीं तो कल उठेगा। क्योंकि जनता का धन वसूलकर कोई भी सरकार यूं ही खर्च नहीं कर सकती। इस वंदिश लगाना जरूरी है, क्योंकि भ्रष्ट्राचार का जन्म भी यहीं से हुआ है।
एक बार फिर से बिहार के लोगों के साथ ठगी पर बात करें तो बिहार में महागठबंधन लालू , नीतिश का समीकरण जब बना था तो जनता ने इसलिये वोट दिया क्योंकि वह बीजेपी के साथ नहीं जाना चाहती थी। अगर ऐसा नहीं होता तो बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलता। लेकिन नीतिश ने इस्तीफा और महागठबंधन तोड़कर बहती नदी की धार में शामिल होने में अपनी और पार्टी की भलाई समझी। लेकिन जनता तो पर ठगी गई। या यू कह लीजिए जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी है तब से जनता ठगी जा रही है। वो वादें औऱ कसमों को याद कीजिये जब 15 लाख और भ्रष्ट्राचार खत्म रोजगार मिलेगा।इन सबको लेकर बीजेपी जनता के बीच आई थी, लेकिन हुआ उलटा ही। सरकार ने सबसे ज्यादा सरकारी धनों का दुरूपयोग किया। विजय माल्या और ललित मोदी फरार है। 15 लाख का तो ही बात ही मत कीजिये साहब ये तो जुमला था औऱ भारतीय लोकतंत्र का बलात्कार जुमलें ने ही कर लिया औऱ भारतीय निर्वाचन आयोग मूकदर्शक बनकर देखता रहा।
बिहार में भी यहीं हुआ । जब लोकतंत्र में जनता को वोट देने औऱ सरकार चुनने का अधिकार है तो राज्यपाल गणीतीय जोड़ तोड़ करके आंकड़ा पूरा करके सरकार बनाने का अधिकार कैसे दे सकती है। इन परिस्थितियों को राज्यपाल चुनाव का फैसला लें या निर्वाचन आयोग इस तरह के गठबंधन को लेकर नीति और नियम चुनाव शुरू होने से पहले रखें या मत पत्र में इसका प्रावधान हो।
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