Friday, 21 July 2017

भारत अपने ही "भूल" का खामियाजा भुगत रहा है "चीन " से




विश्व स्तर पर चीन भारत को कैसे घेरे और उसका दबदबा कम करे, इसको लेकर चीन ने जिस तरीके से पाकिस्तान को दोस्त बनाने में जुटा है, उससे साफ है कि भारत के अंदरूनी राजनीति में चीन दखल देना चाहता है। लेकिन चीन को ऐसा क्यों करना पड़ा, यह सवाल भारतीय मीडिया से गायब है और इसका जवाब कोई भी देने को तैयार नहीं है। भारत हमेशा से तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर दखलअंदाजी करता आ रहा है, जिसका चीन ने हमेशा से विरोध किया है। तिब्बती गुरू दलाई लामा को लेकर चीन और भारत हमेशा से आमने सामने की स्थिति में रहे है। 
   लेकिन अटल सरकार के बाद भारत ने तिब्बत को लेकर कुछ भी कहने से बच रहा है। इसके बारे में भारतीय इतिहास को टटोलने पर पता चला कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में बीजिंग दौरे पर चीन से एक अनुबंध करार किया था, इसके तहत  सिक्किम को भारत का हिस्सा माना जाए और इसके बदले तिब्बत को चीन का हिस्सा माना जाएगा। इसके बाद से ही राजनीति परिदृश्य चीन के साथ बदल गया। हालांकि यह गलती पहली बार नहीं हुई इससे पहले 1954 में नेहरू ने भी यही गलती किया। तिब्बत समझौते के तहत चीन का हिस्सा तिब्बत को माना गया। जबकि भारत मैकमोहन रेखा को अंतर्ऱाष्ट्रीय सीमा मानता आ रहा है, ऐसे में तिब्बत चीन का हिस्सा है औऱ मैकमोहन अंतर्राष्ट्रीय सीमा है। दोनों बातें एक साथ संभव नहीं है । जबकि वाजेपयी सरकार को रणनीतिक तौर पर इसे टालना चाहिए था। उस वक़्त हमने तिब्बत के बदले सिक्किम को सेट किया था। चीन ने सिक्किम को मान्यता नहीं दी थी लेकिन जब हमने तिब्बत को उसका हिस्सा माना तो उसने भी सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया। उनका कहना है कि "इसके बाद ही नाथुला में सरहद पर ट्रेड को मंजूरी दी गई. नाथुला से इतना बड़ा व्यापार नहीं होता है कि इतनी बड़ी क़ीमत चुकानी चाहिए थी, तब ऐसा लगता था कि यह एक अस्थाई फ़ैसला है और बाद में स्थिति बदलेगी। उस वक़्त भारत ने दलाई लामा से भी बात की थी और उन्होंने इसकी मंज़ूरी भी दी थी। 
 अब सवाल यह उठता है कि भारत में चीन का निवेश है, अगर युध्द की स्थिति बनती है तो चीन को आर्थिक रूप से भी नुकसान उठाना पड़ेगा।वहीं इस पूरे मामले में भूटान भी चुप बैठा हुआ है। उसके तरफ से किसी तरह का राजनीतिक पहल नहीं किया जा रहा है। 

  

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