मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएंगे....मेरे बाद तुम्हें मेरी याद दिलाने आएंगे...थोड़ी आच बची रहने दो थोड़ा धुआं निकलने दो...कल देखों कई मुसाफिर इस बहाने आएंगे...। एक शायर की जिसके शेर नेताओं के तकरीरों में जान फूंकते रहे...नेता तो सड़क से उठकर संसद तक पहुंच गए मगर शायर पीछे छूट गया... अगर इस मलवे की जगह दीवारें खड़ी होती और घर पर दरवाजा होता तो इसका पता होता उनहत्तर बटे आठ। साउथ टीटी नगर स्थित यह मकान मलवे में तब्दील हो चुका है। यह वहीं सरकारी मकान है जो दुष्यंत कुमार के घर के रूप में पहचाना जाता था। विकास की आंधी में दुष्यंत का घर मलवे में तब्दील हो चुका है और बस अब बचा है तो उनकी यादों जो कि दुष्यंत संग्राहालय में कैद है और उसको भी खाली करने का नोटिस दिया जा चुका है। वो भी संग्राहालय अपने होने का अंतिम मियादी गिन रहा है।
दुष्यंत की यह कविता इमरजेंसी के वक्त लिखा था " मत कहो कि आकाश में कोहरा घना है ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है। सूर्य हमने भी नही देखा सुबह से, क्या करोगे सूर्य का क्या देखना है,,, या फिर " वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिये,,,, या ये साफगोई कि " हमको पता नहीं था हमें अब पता चला, इस मुल्क में हमारी हुकुमत नहीं रही,,, और फिर वो लाइनें जिनके बिना नेताओं की तकरीर पूरी नहीं होती " कौन कहता है आसमान में सुराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो,,, या अरविंद केजरीवाल की पसंदीदा लाइन "मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिये,,, दुष्यंत जी की लिखी ऐसी कितनी लाइनें हैं जो ऐसा लगता है कल ही बैठकर आज के लिये ही लिखी गयी हैं। और वो लाइनें इन कमरों में ही बैठकर लिखीं गयी होगी। क्या विचार चलते होगे कवि के मन में कैसे वो उनको कागजों पर इस छत के नीचे बैठकर कागजों पर उतारता होगा और क्या उन्होनें कभी सोचा होगा कि कागजों पर उनकी लिखी लाइनें लोगों के दिलों में लिख ली जायेंगी और जुबान पर मोके बेमोके पर जुबान आ जायेंगी।
वो सुंदर सी दुष्यंत कुमार लिखी नेम प्लेट आलोक भाई के हाथों में है जो वो दुष्यंत कुमार संग्रहालय के संचालक राजुरकर राज को देने के लिये लाये हैं। ये सब कब हुआ। बस कुछ दिन पहले ही हमें नोटिस मिला कि स्मार्ट सिटी में आपका मकान आ रहा है सामान समेट लीजिये। आनन फानन में हमने सामान समेटा और अगले ही दिन इसे समतल कर दिया गया। शायद बहुत जल्दी में हैं स्मार्ट सिटी वाले। हम ये भी नहीं बता पाये कि ये मकान तो दुष्यंत जी की पत्नी राजेश्वरी जी को सरकार ने जीवन पर्यंत के लिए दिया वो अभी मेरे साथ हैं उनको अभी हमने बताया नहीं है कि मकान टूट गया है हांलाकि मालुम पडेगा तो नहीं मालुम वो कैसे व्यक्त करेंगी। क्योंकि हम इस मकान में तकरीबन पचास साल रहे। यहीं बैठकर पिताजी ने अपनी सारी गजलें लिखीं। यहीं पर साहित्यकारों का जमघट लगा रहता था। इस घर सिर्फ लेखन से जुडे लोग ही नहीं वो सारे लोग भी आते थे जो अलग अलग तरीके से जरूरतमंद होते थे उनको पता था कि पापा की बात बडे अफसर सुन लेते हैं। तभी वहां खडे वरिष्ट साहित्यकार राजेन्द्र शर्मा जी ने किस्सा सुनाया कि बालकवि बैरागी जब दष्यंत जी के निधन की खबर सुनकर यहां आये तो बताया कि बाहर उनको लाने वाला आटो चालक भी रो रहा है क्योंकि दुष्यंत जी की सिफारिश पर उसको आटो मिला था। भरे गले से आलोक कहते हैं ये मकान का टूटना उनके लिये छत और दीवार का मसला नहीं है बल्कि ये भावनात्मक दुख है हमारे और दुष्यंत जी के चाहने वालों के लिये। वो कहते हैं हैरानी इस बात पर ज्यादा होती है कि इमरजेंसी में वो लोग जो जेल में बंद थे और आज लोकतंत्र के सेनानी कहलाकर मोटी पेंशन पा रहे है उनकी आवाज ही तो थे पापा और आज यही लोग सत्ता में है मगर किसी ने भी इस घर परिवार की सुध नहीं ली। अरे ये मार्डन स्कूल है यहीं पर मेरी मां पढाती थी और सीएम शिवराज जी उनके विदयार्थी रहे हैं। खैर ये मकान तो विकास की आड मे टूट गया मगर थोडी दूर पर ही बने दुष्यंत कुमार स्मृति संग्रहालय को अब बचा लिया जाये क्योंकी उसे भी बेदखली का नोटिस मिल गया है। दुप्यंत कुमार जी के घर का मलबा शिकायती लहजे में हमें मुंह चिढा रहा था और शायद यही कह रहा था ,,,खंडहर बचे हुये हैं इमारत नहीं रही, अच्छा हुआ सर पे कोई छत नहीं रही। हमने ताउम्र अकेले सफर किया हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही।।,,,
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