Saturday, 29 July 2017

42 साल लग गए 'आपातकाल' से निकलने में भारतीय सिनेमा को

kumar Saurabh
कहते है फिल्म समाज का आईना  होती है। पुरानी फिल्मों की बात करें तो ज्यादातर फिल्मों की कहानी समाज के दगोले नीति को उजागर करती थी। एक आम इंसान को समाज में किस तरह से जिंदगी औऱ परिवार का पोषण करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है, उसको दर्शाती थी। लेकिन समय के साथ समाजिक क्रूरता को दिखाने वाली सिनेमा का प्रचलन कम हो गया। मोदी सरकार में सिनेमा की कहानियों ने एक बार फिर करवट बदली और इंदू सरकार जो कि 42 साल पहले लगी आपातकाल की स्थिति को दर्शाने पर बनी। इस घटना पर फिल्म बनने में इतना समय क्यों लगा, यह आपको सोचने पर जरूर मजबूर कर देगा, जब भारत में लोकतंत्र है तो इस घटना क्रम पर फिल्म बनकर अब तक रिलीज हो जाना चाहिये।
    42 साल पहले आपातकाल की स्थिति कैसी रही और क्या हुआ, उसको सिनेमा पटल पर दिखाने में इतना समय लग गया, इसके पीछे की कहानी आसान नहीं रही होगी य़ा कांग्रेस के सरकार की दमन नीतियों ने इसको कभी फिल्म बनने नहीं दिया होगा। लेकिन लोकतंत्र की खासियत इस फिल्म के रिलीज होने के बाद लोगों को समझ में आएगा। लोकतंत्र में सबको मौका मिलता है औऱ मिला भी सरकार जब बदली तो नीतियां भी बदली। मैं सिनेमा को राजनीति से जोड़कर नहीं देखना चाहता क्योंकि मैं इससे जोड़कर देखूंगा तो फिल्म के साथ न्याय नहीं होगा।
 फिल्म इंदू सरकार भी बहुत कुछ बताती है। 1947 में हम अंग्रेजों की गुलामी से जरूर आजाद हो गए, लेकिन नेहरू परिवार ने गांधी के सपने को जिस तरीके से अधिकृत कर एकल कब्जा रखा, उससे आजादी हमें अब मिली। ऐसा आपको भी लगता है। नेहरू परिवार ने उनको ही नेता बनाया जो धनी थे या राजा -महाराजा. या फिर उनके लिये सबकुछ करने वाले कलेक्टर थे। इसके उदाहरण आपको आसपास मिल जाएंगे। आप नजर दौराए और सोचें तो कई उदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हुए मिलेंगे । या फिर नेहरू परिवार ने जाति की राजनीति के आधार उनको पार्टी में कद दिया। गांधी परिवार आज भी राजा महराजा और समाज में उच्च लोगों के आस पास घिरा हुआ है और इससे निकलना नहीं चाहता है। ये सिर्फ देश में हुकूमत करने का तरीका था। हम लोकतंत्र में रह जरूर रहे थे, लेकिन असली आजादी हमें नहीं मिली थी, जो मिला उससे ज्यादा हमसे लूट लिया गया। सरकार ने फिल्म मीडिया को भी अपने कब्जे में रखा। लेकिन यह हमेशा से रहा है, जब आपके समर्थक होते है, तो विरोधी तत्व भी होते है। विरोधी तत्व अपना पोषण विरोध करके करते है। यह राह बेहद कठिन होता है, लेकिन इसका अपना एक मजा है। आप कभी किसी राजघराना, सरकार या उच्च पद पर बैठे लोगों का विरोध करके देखियें आपको लड़ाई लड़ने में मजा जरूर आएगा। ऐसा भारतीय राजनीतिक के इतिहास में भी हुआ। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष को मजबूत बनाया तो विपक्ष को यह ताकत दी कि आप सत्ता पक्ष के तानाशाही को तोड़कर अपने तथा देश के लोगों को आजाद करों। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो पहले अब और आगे तक चलेगी।
इंदु सरकार ने देश में 42 साल पहले हुई क्रूरता को दिखाया, जो एक तरफा मानसिकता को दिखाता है। नेहरू परिवार से अगर गांधी का सरनेम छिन लिया जाए तो इस देश में क्या मिला नेहरू परिवार से । इसको भी जरा सोचियें। गांधी का सिपाही बाद उनका सरनेम लेकर गांधी बन जाता है, यह तब होता है जब समाज में बुध्दिजीवियों की संख्या गिनती की होती है। यहां बुध्दिजीवि कहने का मतलब है शिक्षित वर्ग की।
या आप कहियें कि गांधी के वंश का हक मारकर  नेहरू परिवार अपना भविष्य सुनिश्चिचत करता है। हालांकि यह बातें इतिहास में दफन है। वैसे उस समय विपक्ष को काफी संघर्ष करना पड़ा होगा अपने आपको जीवित रखने के लिये। उन समय के बारे में भी जरा सोचियें। संघ और उसकी भूमिका को भूलाया नहीं जा सकता। कांग्रेस के दुष्प्रचार के कारण संघ बदनाम हुआ है। लेकिन इतिहास में किये गए संघर्ष के कारण बीजेपी को आज सत्ता मिला है। इस देश को मोदी जैसे नेता की जरूरत थी या नहीं इस बहस में नहीं जाना चाहता, लेकिन बीजेपी या संघ को इसकी बेहद आवश्यवकता थी। क्योंकि यह काम करने की हिम्मत मोदी में ही है। यह कोई नहीं कर सकता। क्योंकि मोदी कलयुग के बिरजू है। मदर इंडिया फिल्म में बिरजू की कहानी आप सबको याद होगी। जब बिरजू सूदखोर 'लाला' से किस तरह विरोध करता है। मां भाई, समाज सब परेशान होते हैं, लेकिन यह भी अपने आपमें एक हक की लड़ाई है। इसे आप गलत नहीं कह सकते। समाज की क्रूरितियों को दूर करने के लिये हिंसा करना गलत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शासन या प्रशासन इस तरह की क्रूरितियों को दूर करने में विफल रहता है।
 बात अब इस फिल्म की करें, तो 42 साल बाद इस फिल्म को दिखाना का यह मतलब है कि आज के लोग जाने की क्या दिक्कत हुई थी, वैसे मोदी जी ने लोकसभा में भी कहा था कि आपकी कमजोर योजनाओं को ढोल तमाशा के साथ लोगों को बताऊंगा। शायद यह इसकी पहली कड़ी है। हालांकि फिल्म के शुरूआत के दृश्य की तरह यह कथा, कहानी और पात्र किसी भी तरह के जीवित का पार्टी विशेष पर आधारित नहीं है।

Wednesday, 26 July 2017

लोकतंत्र का यू उड़ता है मजाक, मूर्कदर्शन है निर्वाचन आयोग, फिर ठगी गई जनता

बिहार की राजनीति में बुधवार को राहू कुछ तरह से बदला कि एक झटके में मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने इस्तीफा देकर अपने आपको पाक साबित कर दिया , लेकिन गुरूवार को गुरू ने उन्हें फिर से मुख्यमंत्री के पद पर बैठा दिया , लेकिन इस घटनाक्रम के बीच छलवा हुआ तो सिर्फ बिहार की जनता के साथ। सवाल यह उठता है कि भारतीय निर्वाचन आयोग को अब चुनाव के समय मत पत्र में जनता के समक्ष नोटों की तरह यह भी पूछना चाहिये कि अगर गठबंधन होती है तो किस पार्टी के साथ गठबंधन की जाए और इस पर भी जनता का मत लेना चाहिये।
 लोकतंत्र में जब जनता के दारा बहुमत से  चुनी हुई सरकार जब बनती है, तो महागठबंधन या गठबंधन होने पर जनता की वोटिंग से ही यह तय हो। तभी जनता के अधिकार की स्वतंत्रता है। अन्यथा ऐसा लगता है जैसे निर्वाचन आयोग औऱ राजनीति पार्टी गठबंधन या महागठबंधन के खेल में छलावा जनता के साथ हो रहा है। लोकतंत्र में कोई भी पार्टी खुद यह तय कैसे कर सकती है कि उसको किस राजनीति पार्टी के साथ गठबंधन करना है। या चुनाव के दौरान पार्टी यह स्थिति स्पष्ट करें कि वह गठबंधन करेगी तो किसके साथ करेगी और उसके साथ ही पांच साल तक गठबंधन चलाने का भी शपथ पत्र दें।
 लोकतंत्र के कमजोर नियमों का कैसे उपयोग करना है, उसे राजनीति पार्टी बहुत अच्छे काम कर रही है, क्योंकि अब जनता की सेवा का भाव खत्म हो चुका है, इसमें भी व्यवसायिकरण या प्रोफेशनलिज्म शामिल हो गया है। चुनाव कैसे जितना और कैसे हमें जनता और कानून को गुमराह करके वोट लेना है, इसका बखूबी इस्तेमाल पार्टी कर रही है।
 पार्टी आरक्षण जैसे मुद्दे पर अपने आपको दूर करने की जगह राष्ट्रपति भी दलित वर्ग का चाह रही है। सवाल यह भी है कि क्या देश की जनता को लगता है कि हमें राष्ट्रपति या राज्यपाल जैसे अहम पदों को समाप्त कर सरकारी खजानें के खर्चें पर रोक लगाना चाहिये। यह सवाल आज नहीं तो कल उठेगा। क्योंकि जनता का धन वसूलकर कोई भी सरकार यूं ही खर्च नहीं कर सकती। इस वंदिश लगाना जरूरी है, क्योंकि भ्रष्ट्राचार का जन्म भी यहीं से हुआ है।
 एक बार फिर से बिहार के लोगों के साथ ठगी पर बात करें तो बिहार में महागठबंधन लालू , नीतिश का समीकरण जब बना था तो जनता ने इसलिये वोट दिया क्योंकि वह बीजेपी के साथ नहीं जाना चाहती थी। अगर ऐसा नहीं होता तो बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिलता। लेकिन नीतिश ने इस्तीफा और महागठबंधन तोड़कर बहती नदी की धार में शामिल होने में अपनी और पार्टी की भलाई समझी। लेकिन जनता तो पर ठगी गई। या यू कह लीजिए जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी है तब से जनता ठगी जा रही है। वो वादें औऱ कसमों को याद कीजिये जब 15 लाख और भ्रष्ट्राचार खत्म रोजगार मिलेगा।इन सबको लेकर बीजेपी जनता के बीच आई थी, लेकिन हुआ उलटा ही। सरकार ने सबसे ज्यादा सरकारी धनों का दुरूपयोग किया। विजय माल्या और ललित मोदी फरार है। 15 लाख का तो ही बात ही मत कीजिये साहब ये तो जुमला था औऱ भारतीय लोकतंत्र का बलात्कार जुमलें ने ही कर लिया औऱ भारतीय निर्वाचन आयोग मूकदर्शक बनकर देखता रहा।
 बिहार में भी यहीं हुआ । जब लोकतंत्र में जनता को वोट देने औऱ सरकार चुनने का अधिकार है तो राज्यपाल गणीतीय जोड़ तोड़ करके आंकड़ा पूरा करके सरकार बनाने का अधिकार कैसे दे सकती है। इन परिस्थितियों को राज्यपाल चुनाव का फैसला लें या निर्वाचन आयोग इस तरह के गठबंधन को लेकर नीति और नियम चुनाव शुरू होने से पहले रखें या मत पत्र में इसका प्रावधान हो।

Friday, 21 July 2017

भारत अपने ही "भूल" का खामियाजा भुगत रहा है "चीन " से




विश्व स्तर पर चीन भारत को कैसे घेरे और उसका दबदबा कम करे, इसको लेकर चीन ने जिस तरीके से पाकिस्तान को दोस्त बनाने में जुटा है, उससे साफ है कि भारत के अंदरूनी राजनीति में चीन दखल देना चाहता है। लेकिन चीन को ऐसा क्यों करना पड़ा, यह सवाल भारतीय मीडिया से गायब है और इसका जवाब कोई भी देने को तैयार नहीं है। भारत हमेशा से तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर दखलअंदाजी करता आ रहा है, जिसका चीन ने हमेशा से विरोध किया है। तिब्बती गुरू दलाई लामा को लेकर चीन और भारत हमेशा से आमने सामने की स्थिति में रहे है। 
   लेकिन अटल सरकार के बाद भारत ने तिब्बत को लेकर कुछ भी कहने से बच रहा है। इसके बारे में भारतीय इतिहास को टटोलने पर पता चला कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में बीजिंग दौरे पर चीन से एक अनुबंध करार किया था, इसके तहत  सिक्किम को भारत का हिस्सा माना जाए और इसके बदले तिब्बत को चीन का हिस्सा माना जाएगा। इसके बाद से ही राजनीति परिदृश्य चीन के साथ बदल गया। हालांकि यह गलती पहली बार नहीं हुई इससे पहले 1954 में नेहरू ने भी यही गलती किया। तिब्बत समझौते के तहत चीन का हिस्सा तिब्बत को माना गया। जबकि भारत मैकमोहन रेखा को अंतर्ऱाष्ट्रीय सीमा मानता आ रहा है, ऐसे में तिब्बत चीन का हिस्सा है औऱ मैकमोहन अंतर्राष्ट्रीय सीमा है। दोनों बातें एक साथ संभव नहीं है । जबकि वाजेपयी सरकार को रणनीतिक तौर पर इसे टालना चाहिए था। उस वक़्त हमने तिब्बत के बदले सिक्किम को सेट किया था। चीन ने सिक्किम को मान्यता नहीं दी थी लेकिन जब हमने तिब्बत को उसका हिस्सा माना तो उसने भी सिक्किम को भारत का हिस्सा मान लिया। उनका कहना है कि "इसके बाद ही नाथुला में सरहद पर ट्रेड को मंजूरी दी गई. नाथुला से इतना बड़ा व्यापार नहीं होता है कि इतनी बड़ी क़ीमत चुकानी चाहिए थी, तब ऐसा लगता था कि यह एक अस्थाई फ़ैसला है और बाद में स्थिति बदलेगी। उस वक़्त भारत ने दलाई लामा से भी बात की थी और उन्होंने इसकी मंज़ूरी भी दी थी। 
 अब सवाल यह उठता है कि भारत में चीन का निवेश है, अगर युध्द की स्थिति बनती है तो चीन को आर्थिक रूप से भी नुकसान उठाना पड़ेगा।वहीं इस पूरे मामले में भूटान भी चुप बैठा हुआ है। उसके तरफ से किसी तरह का राजनीतिक पहल नहीं किया जा रहा है। 

  

Sunday, 16 July 2017

जनता का सेवक जनता के बीच जाए...

मध्य प्रदेश के जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा लगातार चुनाव आयोग के निर्णय को लेकर कोर्ट दर कोर्ट संघर्ष कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है, राजनीति में नरोत्तम मिश्रा जनता की सेवा के लिये नहीं बल्कि अपना कैरियर बनाने आए थे। पद का इतना मोह और नैतिकता खत्म होते मैंने राजनीति में देखा है। पहले आरोप लगने पर ही इस्तीफा देकर जनता के सेवक जनता के बीच जाकर सेवा में जुट जाते थे। लेकिन अब आरोप , जांच और फिर फैसला होने के बाद भी बेशर्मों की तरह पद पर बने रहते है। जब तक पार्टी हाईकमान धक्का देकर बाहर नहीं कर दें। आखिर क्यों?
 एक पत्रकार होने के नाते जब भी नेता का इंटरव्यू लीजिये तो यहीं कहेंगे जनता की सेवा के लिये राजनीति में आए है। जनता की सेवा के लिये राजनीति में आने की क्या जरूरत है आप एनजीओ या बिना एनजीओ के भी जनता की सेवा कर सकते हैं। नेताओं को कहना चाहिये कि जनता के अधिकार , विकास और बदलाव के लिये राजनीति में आए है, लेकिन कभी प्रशासनिक अधिकारियों ने इस तरह का ज्ञान नेताओं को नहीं दिया। इसका यही नतीजा है कि जनता की सेवा के नाम पर खुद की सेवा हो रही है। चुनाव से पहले दी जाने वाली संपत्ति का आंकड़ा खुद बता देता है कि नेताजी ने कितनी संपर्ति बनाकर उधोगपतियों को पछाड़ दिया है। भारत में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण जरूरत से ज्यादा धन की जमापूंजि है। आप जब तक इस पर रोक नहीं लगाएंगे तब सबकुछ समेटने की प्रवृति इस देश में खत्म नहीं होगी। जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा को चाहिये कि पार्टी को खुद इस्तीफा देकर कानूनी लड़ाई लडे़। लेकिन नरोत्तम  मिश्रा जानते है कि कानूनी लड़ाई जीत भी गए तो पार्टी दोबारा मौका नहीं देगी। इसलिये पद पर बने रहकर संघर्ष करने में ही भलाई है।
 मप्र के राजनीति में खास बात यह रही कि शिवराज पर संकट लाने वालों की राजनीति कैरियर ही खत्म हो गई। शिवराज के सिपालाहाकरों ने हमेशा से उन्हें सुरक्षित रखा है। मप्र में अगला मुख्यमंत्री बीजेपी के तरफ से कौन होगा.... यह तय नहीं है या यू कह लीजिये कि कोई भी नहीं। यहीं गलती कांग्रेस के साथ भी हुई थी। दिग्गी के बाद प्रदेश में कोई नेता ऐसा नहीं था जो जनता के बीच जाकर वोट मांग सके, या जिसे जनता पसंद करती हो। आज नतीजा यह है कि कांग्रेस के पास विपक्ष नेता तक नहीं। जैसे तैसे कांग्रेस अपने आपको जिंदा रखी हुई है। अगर जनता ने कांग्रेस को मौका भी दिया तो मुख्यमंत्री कौन होगा इसका किसी को पता नहीं। जब मुख्यमंत्री का पता नहीं तो वोट नहीं । वहीं हाल बीजेपी का भी होने वाला है। भारतीय राजनीति को जनता सबको मौका देती है। अगर कांग्रेस को मौका मिला तो बीजेपी को फिर से बुरे दौर से गुजरना होगा। मध्य प्रदेश में पार्टी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
 रही बात जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा कि तो उन्हें इस्तीफा देकर जनता के बीच सेवक के रूप में जाना चाहिये। उनके अपने वरिष्ठ नेता ध्रुव नारायण  सिंह से  कुछ सीखना चाहिये। पार्टी हाईकमान के इशारे पर आज भी ध्रुव नारायण सिंह चल रहे है। पार्टी ने जो काम दिया वहीं किया। आज भी जनता के लिये दरबार लगता है औऱ समस्याओं का निदान होता है। भोपाल में ध्रुव नारायण सिंह ने अपनी अलग पहचान बनाई हुई है और इतने आरोप लगने के बाद भी अपने आपको राजनीति में जिंदा किये हुए है। यहीं काम नरोत्तम मिश्रा को भी करना चाहिये , जिससे कि एक अच्छा मैसेज राजनीति में जाए।

Saturday, 15 July 2017

एशियन देशों में कितना दमदार 'भारत'

जब आप एशियन देशों के भ्रमण पर निकलेंगे तो कई देशों के भ्रमण के बाद आपका भ्रम टूट जाएगा और सोच में पड़ जाएंगे क्या भारत सही में एशियन देशों में सबसे समृध्द और बेहतर देश हैं। बेहतर देश कहने का यह तात्पर्य है कि क्या भारतीन नागरिक के अधिकारों के लिये सरकार सजग है ?  ये अधिकार दिये जा रहे हैं या फिर उन अधिकारों को भारत सरकार लागू नहीं कर सकी है। आर्थिक रूप से अगर एशियन देशों के साथ हम इसकी तुलना करें, तो भारत को पिछड़ा देश आप मानेंगे। तीन घंटे की हवाई यात्रा का सफर कर अगर आप पड़ोसी देश थाईलैंड भी पहुंचेंगे तो आपकी करेंसी पिछड़ जाएगी और रूपया आधा हो जाएगा। जबकि थाईलैंड की आर्थिक स्थिति का अध्ययन करेंगे तो थाईलैंड को सबसे ज्यादा रेवन्यू टूरिज्म से मिलता है और टूरिज्म व्यापार को उन्होंने यूरोपीय लोगों को ध्यान में रखकर विकसित किया है। यही ंस्थिति आपको आपके पड़ोसी मूलक चाइना में देखने को मिलेगा। 
 चाइना के विकास का मुख्य कारण यूएस है। जब भारत रूस के दम पर हथियार खरीद रहा था, तब भारत को सिर्फ सुरक्षा के लिये हथियार दिये गए मगर रूस ने कभी विकास भारत को नहीं दिया। जबकि चाइना शुरू से ही अमेरिका का पिछलगू था और वह हथियार के अलावा यूरिपोयिन विकास को भी अपने देश में लाने में सफल हो गए। जबकि भारत ऐसा नहीं कर सका। 
वहीं नागरिक के अधिकारों की बात करें, तो भारत के नागरिक आज भी मूल अधिकारोंं के लिये संघर्ष क रही है..जैसे रोजगार...नागरिक सुरक्षा बीमा... बेरोजगारी भत्ता, आवास , भोजन जैसी अहम मुद्दा है और इन सब चुनौतियों के बावदजूद इंसानी जरूरतों को छोड़ देश में हिंदूत्व, गौ सरंक्षण जैसे मुद्दे पर जोरदार तरीके से काम हो रहा है। अब आप सोचिये कि इस देश का विकास कैसे होगा। 
 हम अकसर चीन को धमकी देते है कि चाइना समान खरीदना बंद कर दें, लेकिन भारतीय बाजार के अलावा सरकारी बाजार में भी दखल दे चुका हैं। भारत के सरकारी प्रोजेक्टों में चीन का अहम योगदान है और उस पर कार्य कर रहा है। बात करें उत्पादन और निर्माण को लेकर करेंगे तो भारत अभी काफी पिछे हैं, यूरोप की मुख्य कंपनियां चीन में निर्माण उत्पादन पर पैर जमाए हुए है। वहीं यूके जो हमेशा से भारत का खास दोस्त माना जाता रहा है, जो कभी हमारा शोषण किया था, उसकी डिजनी लैंड जैसी बड़ी कंपनियां भी चीनी बाजार में पहुंच गई है और लोगों को रोजगार उपलब्ध करा रही है। 
ऐसे में सवाल यह उठता है कि भारत में बीजेपी की सरकार बनने के बाद क्या हम मुख्य मुद्दे से भटक चुके हैं। भारत अब भी अपने आप में संघर्ष कर रहा है। 
बाजारवाद में अगर भारत विकास कर रहा है तो यहीं किसी सरकार की देन नहीं है, क्योंकि बाजार की तलाश में कई कंपनियां भारत आ रही है। उसको कोई भी राजनीति पार्टी श्रेय न लें तो बेहतर होगा। बाजारवाद में जो प्रतियोगिता है, वो अंतिम आदमी को सुविधा देने की बात करता है, जिससे कि उससे रेवन्यू अर्जित किया जा सके। जो पहले पहुंचेगा वहीं ज्यादा रेवन्यू कमा सकेगा। 
एशियाई देशों में श्रीलंका पाकिस्तान और छोटे देशों को छोड़ दे तो अभी हमें संघर्ष करना है। चाइना से बेहतर और मजबूत बनने के लिये हमें विकास, तकनीकि औऱ नागरिकों की सुविधा पर विशेष ध्यान देना होगा। यूरोपीयन देशों का भ्रमण करने के बाद भारतीय नेताओं को उसे विकास को बाजारवाद के रूप में नहीं, बल्कि नागरिक सुविधा के आधार पर लाना होगा।तभी भारतीय दमदारी साबित हो सकेगी।

Tuesday, 11 July 2017

जल्दी में नरोत्तम, आराम से न्यायपालिका

 चुनाव आयोग का डंडा मप्र के जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा पर उस समय पड़ा , जब वो अपने राजनीतिक कैरियर में सबसे मजबूत स्थिति में है। कभी शिवराज के संकटमोचक कहे जाने वाले नरोत्तम मिश्रा ने ऐसा नहीं सोचा होगा कि उनकी राजनीतिक कैरियर पर इतना बड़ा संकट आ जाएगा। हालांकि यह मामला पहले से आयोग के पास लंबित था। चुनाव आयोग ने इस पर निर्णय तब लिया जब पूरी सरकार किसान आंदोलन से संकट में थी।
 एक निजी चैनल ने शिवराज के उपवास का इस तरह उपहास उड़ाया और उस चैनल ने जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा के इस उपवास पर बयान भी सुनाया। इसके बाद ही जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा की उल्टी गिनती शुरू हो गई। अपनी छवि के अनुरूप शिवराज के लिये कुछ करने की गुरेज ने नरोत्तम के पाशा को उल्टा कर दिया। चुनाव आयोग के आदेश के बाद जनसंपर्क मंत्री ने कानून जानकार और सलाहकारों पर पैसा खूब खर्च किया। इस पूरी घटना से आप समझ सकते है कि न्याय पाने के लिये जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा को कितनी जल्दी है। लेकिन न्यायपालिका के लिये मंत्री क्या और संत्री क्या। जबकि एक समय नरोत्तम मिश्रा के पास विधि विभाग का भी कमान रहा है। फिर भी मामला हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा चुका है। गौरतलब है कि देश के प्रथम नागरिक राष्ट्रपति के चयन को लेकर 17 जुलाई को वोटिंग होना है और इसका हवाला देते हुए नरोत्तम मिश्रा कानून फैसला भी जल्दी चाहते है। या आने वाले दिनों में उनकी परेशानी बढ़ने वाली है। इसको लेकर भी फैसला जल्द हो तो ज्यादा अच्छा है।
 संघर्ष के दौर में नरोत्तम मिश्रा ने कभी भी हार नहीं मानी। यह उनकी आदत में शुमार है, इसलिये भारतीय राजनीति को बेहतर समझ और कूटनीति का उपयोग करते हुए कम समय में बड़ा मुकाम बनाने में कामयाब रहे। आज भी चुनाव आयोग के फैसले को चुनौति देकर विजयी पाने की पूरी तैयारी कर चुके है।
विकल्प तो कई है लेकिन जनसंपर्क मंत्री इसको जीतकर फिर विधानसभा के सदन में वापस आना चाहते हैं। वहीं विपक्ष पूरी तरह से नरोत्तम मिश्रा को सदन से बाहर रखने के मूड में हैं। उनकी विधायकी खतरे में है,लेकिन नरोत्तम मिश्रा दिल के इतने बड़े है कि विपक्ष के नेताओं को हमेशा सहयोग ही किया। दुर्भावना में आकर कभी भी किसी पर कार्रवाई नहीं होने दी। शायद यहीं राजनीति कभी आपका नंबर है तो कभी मेरा। अब तो पक्ष और विपक्ष में ज्यादा अंतर नहीं रह गया। दोनों मिलकर देश को कम राजनीति दिशा में विरोध भर रहे है। पता नहीं यह विऱोध सत्ता पक्ष क्यों दिखा रहा है। निंदा और परिनंदा तो सोशल साइटस पर ऐसे छाया हुआ है, जैसे उनके फालोअर्स से ही चुनावी जीत तय होनी है। लोकतंत्र में जनता अब सोशल साइटस हो गई है। फेसबुक लाइव और टिविटर लाइव से ही देश की जनता को जुड़ रहे हैं। अच्छा ऐसे में पेड न्यूज की समस्या नहीं रहेगी।