kumar Saurabh
कहते है फिल्म समाज का आईना होती है। पुरानी फिल्मों की बात करें तो ज्यादातर फिल्मों की कहानी समाज के दगोले नीति को उजागर करती थी। एक आम इंसान को समाज में किस तरह से जिंदगी औऱ परिवार का पोषण करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है, उसको दर्शाती थी। लेकिन समय के साथ समाजिक क्रूरता को दिखाने वाली सिनेमा का प्रचलन कम हो गया। मोदी सरकार में सिनेमा की कहानियों ने एक बार फिर करवट बदली और इंदू सरकार जो कि 42 साल पहले लगी आपातकाल की स्थिति को दर्शाने पर बनी। इस घटना पर फिल्म बनने में इतना समय क्यों लगा, यह आपको सोचने पर जरूर मजबूर कर देगा, जब भारत में लोकतंत्र है तो इस घटना क्रम पर फिल्म बनकर अब तक रिलीज हो जाना चाहिये।
42 साल पहले आपातकाल की स्थिति कैसी रही और क्या हुआ, उसको सिनेमा पटल पर दिखाने में इतना समय लग गया, इसके पीछे की कहानी आसान नहीं रही होगी य़ा कांग्रेस के सरकार की दमन नीतियों ने इसको कभी फिल्म बनने नहीं दिया होगा। लेकिन लोकतंत्र की खासियत इस फिल्म के रिलीज होने के बाद लोगों को समझ में आएगा। लोकतंत्र में सबको मौका मिलता है औऱ मिला भी सरकार जब बदली तो नीतियां भी बदली। मैं सिनेमा को राजनीति से जोड़कर नहीं देखना चाहता क्योंकि मैं इससे जोड़कर देखूंगा तो फिल्म के साथ न्याय नहीं होगा।
फिल्म इंदू सरकार भी बहुत कुछ बताती है। 1947 में हम अंग्रेजों की गुलामी से जरूर आजाद हो गए, लेकिन नेहरू परिवार ने गांधी के सपने को जिस तरीके से अधिकृत कर एकल कब्जा रखा, उससे आजादी हमें अब मिली। ऐसा आपको भी लगता है। नेहरू परिवार ने उनको ही नेता बनाया जो धनी थे या राजा -महाराजा. या फिर उनके लिये सबकुछ करने वाले कलेक्टर थे। इसके उदाहरण आपको आसपास मिल जाएंगे। आप नजर दौराए और सोचें तो कई उदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हुए मिलेंगे । या फिर नेहरू परिवार ने जाति की राजनीति के आधार उनको पार्टी में कद दिया। गांधी परिवार आज भी राजा महराजा और समाज में उच्च लोगों के आस पास घिरा हुआ है और इससे निकलना नहीं चाहता है। ये सिर्फ देश में हुकूमत करने का तरीका था। हम लोकतंत्र में रह जरूर रहे थे, लेकिन असली आजादी हमें नहीं मिली थी, जो मिला उससे ज्यादा हमसे लूट लिया गया। सरकार ने फिल्म मीडिया को भी अपने कब्जे में रखा। लेकिन यह हमेशा से रहा है, जब आपके समर्थक होते है, तो विरोधी तत्व भी होते है। विरोधी तत्व अपना पोषण विरोध करके करते है। यह राह बेहद कठिन होता है, लेकिन इसका अपना एक मजा है। आप कभी किसी राजघराना, सरकार या उच्च पद पर बैठे लोगों का विरोध करके देखियें आपको लड़ाई लड़ने में मजा जरूर आएगा। ऐसा भारतीय राजनीतिक के इतिहास में भी हुआ। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष को मजबूत बनाया तो विपक्ष को यह ताकत दी कि आप सत्ता पक्ष के तानाशाही को तोड़कर अपने तथा देश के लोगों को आजाद करों। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो पहले अब और आगे तक चलेगी।
इंदु सरकार ने देश में 42 साल पहले हुई क्रूरता को दिखाया, जो एक तरफा मानसिकता को दिखाता है। नेहरू परिवार से अगर गांधी का सरनेम छिन लिया जाए तो इस देश में क्या मिला नेहरू परिवार से । इसको भी जरा सोचियें। गांधी का सिपाही बाद उनका सरनेम लेकर गांधी बन जाता है, यह तब होता है जब समाज में बुध्दिजीवियों की संख्या गिनती की होती है। यहां बुध्दिजीवि कहने का मतलब है शिक्षित वर्ग की।
या आप कहियें कि गांधी के वंश का हक मारकर नेहरू परिवार अपना भविष्य सुनिश्चिचत करता है। हालांकि यह बातें इतिहास में दफन है। वैसे उस समय विपक्ष को काफी संघर्ष करना पड़ा होगा अपने आपको जीवित रखने के लिये। उन समय के बारे में भी जरा सोचियें। संघ और उसकी भूमिका को भूलाया नहीं जा सकता। कांग्रेस के दुष्प्रचार के कारण संघ बदनाम हुआ है। लेकिन इतिहास में किये गए संघर्ष के कारण बीजेपी को आज सत्ता मिला है। इस देश को मोदी जैसे नेता की जरूरत थी या नहीं इस बहस में नहीं जाना चाहता, लेकिन बीजेपी या संघ को इसकी बेहद आवश्यवकता थी। क्योंकि यह काम करने की हिम्मत मोदी में ही है। यह कोई नहीं कर सकता। क्योंकि मोदी कलयुग के बिरजू है। मदर इंडिया फिल्म में बिरजू की कहानी आप सबको याद होगी। जब बिरजू सूदखोर 'लाला' से किस तरह विरोध करता है। मां भाई, समाज सब परेशान होते हैं, लेकिन यह भी अपने आपमें एक हक की लड़ाई है। इसे आप गलत नहीं कह सकते। समाज की क्रूरितियों को दूर करने के लिये हिंसा करना गलत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शासन या प्रशासन इस तरह की क्रूरितियों को दूर करने में विफल रहता है।
बात अब इस फिल्म की करें, तो 42 साल बाद इस फिल्म को दिखाना का यह मतलब है कि आज के लोग जाने की क्या दिक्कत हुई थी, वैसे मोदी जी ने लोकसभा में भी कहा था कि आपकी कमजोर योजनाओं को ढोल तमाशा के साथ लोगों को बताऊंगा। शायद यह इसकी पहली कड़ी है। हालांकि फिल्म के शुरूआत के दृश्य की तरह यह कथा, कहानी और पात्र किसी भी तरह के जीवित का पार्टी विशेष पर आधारित नहीं है।
कहते है फिल्म समाज का आईना होती है। पुरानी फिल्मों की बात करें तो ज्यादातर फिल्मों की कहानी समाज के दगोले नीति को उजागर करती थी। एक आम इंसान को समाज में किस तरह से जिंदगी औऱ परिवार का पोषण करने के लिये संघर्ष करना पड़ता है, उसको दर्शाती थी। लेकिन समय के साथ समाजिक क्रूरता को दिखाने वाली सिनेमा का प्रचलन कम हो गया। मोदी सरकार में सिनेमा की कहानियों ने एक बार फिर करवट बदली और इंदू सरकार जो कि 42 साल पहले लगी आपातकाल की स्थिति को दर्शाने पर बनी। इस घटना पर फिल्म बनने में इतना समय क्यों लगा, यह आपको सोचने पर जरूर मजबूर कर देगा, जब भारत में लोकतंत्र है तो इस घटना क्रम पर फिल्म बनकर अब तक रिलीज हो जाना चाहिये।
42 साल पहले आपातकाल की स्थिति कैसी रही और क्या हुआ, उसको सिनेमा पटल पर दिखाने में इतना समय लग गया, इसके पीछे की कहानी आसान नहीं रही होगी य़ा कांग्रेस के सरकार की दमन नीतियों ने इसको कभी फिल्म बनने नहीं दिया होगा। लेकिन लोकतंत्र की खासियत इस फिल्म के रिलीज होने के बाद लोगों को समझ में आएगा। लोकतंत्र में सबको मौका मिलता है औऱ मिला भी सरकार जब बदली तो नीतियां भी बदली। मैं सिनेमा को राजनीति से जोड़कर नहीं देखना चाहता क्योंकि मैं इससे जोड़कर देखूंगा तो फिल्म के साथ न्याय नहीं होगा।
फिल्म इंदू सरकार भी बहुत कुछ बताती है। 1947 में हम अंग्रेजों की गुलामी से जरूर आजाद हो गए, लेकिन नेहरू परिवार ने गांधी के सपने को जिस तरीके से अधिकृत कर एकल कब्जा रखा, उससे आजादी हमें अब मिली। ऐसा आपको भी लगता है। नेहरू परिवार ने उनको ही नेता बनाया जो धनी थे या राजा -महाराजा. या फिर उनके लिये सबकुछ करने वाले कलेक्टर थे। इसके उदाहरण आपको आसपास मिल जाएंगे। आप नजर दौराए और सोचें तो कई उदाहरण इस बात को स्पष्ट करते हुए मिलेंगे । या फिर नेहरू परिवार ने जाति की राजनीति के आधार उनको पार्टी में कद दिया। गांधी परिवार आज भी राजा महराजा और समाज में उच्च लोगों के आस पास घिरा हुआ है और इससे निकलना नहीं चाहता है। ये सिर्फ देश में हुकूमत करने का तरीका था। हम लोकतंत्र में रह जरूर रहे थे, लेकिन असली आजादी हमें नहीं मिली थी, जो मिला उससे ज्यादा हमसे लूट लिया गया। सरकार ने फिल्म मीडिया को भी अपने कब्जे में रखा। लेकिन यह हमेशा से रहा है, जब आपके समर्थक होते है, तो विरोधी तत्व भी होते है। विरोधी तत्व अपना पोषण विरोध करके करते है। यह राह बेहद कठिन होता है, लेकिन इसका अपना एक मजा है। आप कभी किसी राजघराना, सरकार या उच्च पद पर बैठे लोगों का विरोध करके देखियें आपको लड़ाई लड़ने में मजा जरूर आएगा। ऐसा भारतीय राजनीतिक के इतिहास में भी हुआ। लोकतंत्र में सत्ता पक्ष को मजबूत बनाया तो विपक्ष को यह ताकत दी कि आप सत्ता पक्ष के तानाशाही को तोड़कर अपने तथा देश के लोगों को आजाद करों। यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जो पहले अब और आगे तक चलेगी।
इंदु सरकार ने देश में 42 साल पहले हुई क्रूरता को दिखाया, जो एक तरफा मानसिकता को दिखाता है। नेहरू परिवार से अगर गांधी का सरनेम छिन लिया जाए तो इस देश में क्या मिला नेहरू परिवार से । इसको भी जरा सोचियें। गांधी का सिपाही बाद उनका सरनेम लेकर गांधी बन जाता है, यह तब होता है जब समाज में बुध्दिजीवियों की संख्या गिनती की होती है। यहां बुध्दिजीवि कहने का मतलब है शिक्षित वर्ग की।
या आप कहियें कि गांधी के वंश का हक मारकर नेहरू परिवार अपना भविष्य सुनिश्चिचत करता है। हालांकि यह बातें इतिहास में दफन है। वैसे उस समय विपक्ष को काफी संघर्ष करना पड़ा होगा अपने आपको जीवित रखने के लिये। उन समय के बारे में भी जरा सोचियें। संघ और उसकी भूमिका को भूलाया नहीं जा सकता। कांग्रेस के दुष्प्रचार के कारण संघ बदनाम हुआ है। लेकिन इतिहास में किये गए संघर्ष के कारण बीजेपी को आज सत्ता मिला है। इस देश को मोदी जैसे नेता की जरूरत थी या नहीं इस बहस में नहीं जाना चाहता, लेकिन बीजेपी या संघ को इसकी बेहद आवश्यवकता थी। क्योंकि यह काम करने की हिम्मत मोदी में ही है। यह कोई नहीं कर सकता। क्योंकि मोदी कलयुग के बिरजू है। मदर इंडिया फिल्म में बिरजू की कहानी आप सबको याद होगी। जब बिरजू सूदखोर 'लाला' से किस तरह विरोध करता है। मां भाई, समाज सब परेशान होते हैं, लेकिन यह भी अपने आपमें एक हक की लड़ाई है। इसे आप गलत नहीं कह सकते। समाज की क्रूरितियों को दूर करने के लिये हिंसा करना गलत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि शासन या प्रशासन इस तरह की क्रूरितियों को दूर करने में विफल रहता है।
बात अब इस फिल्म की करें, तो 42 साल बाद इस फिल्म को दिखाना का यह मतलब है कि आज के लोग जाने की क्या दिक्कत हुई थी, वैसे मोदी जी ने लोकसभा में भी कहा था कि आपकी कमजोर योजनाओं को ढोल तमाशा के साथ लोगों को बताऊंगा। शायद यह इसकी पहली कड़ी है। हालांकि फिल्म के शुरूआत के दृश्य की तरह यह कथा, कहानी और पात्र किसी भी तरह के जीवित का पार्टी विशेष पर आधारित नहीं है।